Thursday, June 14, 2012

गीता की शब्दावली

१) श्रीकृष्ण - एक योगेश्वर थे ।
२) सत्य - आत्मा ही सत्य हॅ ।
३) सनातन - आत्मा ही स्नातन हॅ, परमात्मा ही सनातन हॅ ।
४) सनातन धर्म - परमात्मा से मिलनेवाली क्रिया हॅ ।
५) युद्ध - दॅवी एवं आसुरी सम्पदाओं का संघर्ष "युद्ध" हॅ । ये अन्तःकरण की दो प्रवृत्तियों हॅं । इन दोनों का मितना परिणाम हॅ ।
६) युद्ध-स्थान-यह मानव-शरीर ओर मन सहित इन्द्रीयों का समूह "युद्ध" स्थल हॅ ।
७) ज्ञान - परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी ज्ञान हॅ ।
८) योग - संसार के संयोग-वियोग से रहित अव्यक्त ब्रह्म के मिलन का नाम "योग" हॅ ।
९) ज्ञानयोग - आराधना ही कर्म हॅ । अपने पर निर्भर होकर कर्म मे प्रवृत्त होना "ज्ञानयोग" हॅ ।
१०) निष्काम कर्मयोग - इष्ट पर निर्भर होकर समर्पण के साथ कर्म मे प्रवृत्त होना "निष्काम कर्मयोग" हे ।
११) श्रीकृष्ण ने किस सत्य को बताया - श्रीकृष्ण ने उसी सत्य को बताया, जिसको तत्वदर्शियों ने पहले देख लिया था ऑर आगे भी देखेंगे ।
१२) यज्ञ - साधना की विधि-विशेष का नाम "यज्ञ" हॅ ।
१३) कर्म - यज्ञ को कार्य रुप देना ही "कर्म" हॅ ।
१४) वर्ण - आराधना की एक ही विधि, जिसका नाम कर्म हॅ । जिसको चार श्रेणियों मे बांटा हॅ, वही चार वर्ण हॅ । यह एक ही साधक का ऊंचा-नीचा स्तर हॅ, न कि जाति ।
१५) वर्णसंकर - परमात्म-पथ से च्युत होना, साधन मे भ्रम उत्पन्न हो जाना "वर्णसंकर" हॅ ।
१६) मनुष्य की श्रेणी - अंतःकरण के स्वभाव के अनुसार मनुष्य दो प्रकार का होता हॅ - एक देवताओं -जॅसा, दूसरा असुरों जॅसा । यही मनुष्य की दो जातियां हॅ, जो स्वभाव द्वारा निर्धारित हॅं ऑर यह स्वभाव घटता बढता रहता हॅ ।
१७) देवता - हृदय-देश में परमदेव का देवत्व अर्जित करानेवाले गुणों का समूह हॅ । बाह्य देवताओं की पूजा मूढबुद्धि की देन हॅ ।
१८) अवतार - व्यक्ति के हृदय मे होता हॅ, बाहर नहीं ।
१९) विराट दर्शन - योगी के हृदय मे ईश्वर के द्वारा दी गयी अनुभूति हॅ । भगवान साधक में दृष्टि बनकर खडे हों, तभी दिखायी पडते हॅं ।
२०) पूजनीय देव "ईष्ट" - एकमात्र परात्पर ब्रह्म ही "पूजनीय देव" हॅ । उसे खोजने का स्थान हृदय-देश हॅ । उसकी प्राप्ति का स्त्रोत उसी अव्यक्त स्वरुप में स्थित "प्राप्तिवाले महापुरुष" के द्वारा हॅ ।
( "यथार्थ गीता" से साभार )

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