Friday, June 22, 2012

जहाँ भी धर्म है वहीँ विजय है ...

वृहदारण्यक उपनिषद और महाभारत मे भी यह वाक्य आता है "यतो धर्मस्ततो जय:"....अर्थात जहाँ भी धर्म है वहीँ विजय है ...
यहाँ पर मेरे विचार से धर्म की स्पष्टता से ही विजय की सुनिश्चितता स्पष्ट हो पायेगी ........
धर्म के सन्दर्भ मे अनेकानेक परिभाषाएँ आती हैं पर मै यहाँ पर महाभारत मे आये हुए धर्म को स्पष्ट करने वाली परिभाषा को ही लेना चाहूँगा ...धर्मो धारयती प्रजा ...अर्थात धर्म प्रजा का अर्थात मानव समाज का आधार होना चाहिए . अगर हम इस आधार को नहीं त्यागते तो हमारी विजय मे शंका नहीं .
अब यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ‘धर्म के आधार’ को सुनिश्चित कौन करेगा ?? तो इसका जवाब एक मात्र यही होगा ..चुकी यहाँ प्रजा / समाज / समस्त मानव जाति की बात आयी है ...वही जिसे समस्त मानव जाति से पुत्रवत प्रेम होगा ...जो त्रिकाल दर्शी होगा ...इन्द्रीय जगत से परे जगत के यथार्थ स्वरुप को देखने वाला होगा ...सबका परम कल्याण / सच्ची विजय किसमे है तभी वह देख पायेगा ...वही आप्त पुरुष होगा .आप्त कौन इसके लिए शास्त्रों मे आता है ‘आप्तस्तु नान्यथावादी रागदिवसादपि यथार्थवादी’ ..
ऐसे आप्त हमारे ऋषि / मुनि / संत / महापुरुष हुए हैं ...उनकी बातों को (( अर्थात प्रामाणिक शास्त्रों को )) प्रमाण मानकर ..( सत्य मानकर ) समझने का प्रयास व आचरण मे लाने का प्रयास साथ साथ करते हुए अगर हम धर्म तत्व अर्थात जीवन से जुड़े प्रत्येक तत्व की धारणा जीवन मे करते हैं ..तो हमारी विजय सुनिश्चित है इसमें कोई भी शंका नहीं है ..विजय का अर्थ आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक तापों के समन के साथ साथ समस्त भौतिक सुखों की प्राप्ति से भी है ..और चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति भी इसी से होनी है ....
यहाँ पर मै पुनः दोबातें और लिखना चाहूँगा ..
महाभारत / गीता का विजय पर कथन
यत्र योगेश्वरो कृष्ण यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्री विजयोर्भूति ध्रुवानीतिर्मति मम
जहाँ योगेश्वर कृष्ण है जहाँ पार्थ धनुर्धर है वहीँ पर श्री और विजय हैं ऐसी मेरी नीति है ( व्यास जी का कथन )
और दूसरी बात मै यह कहना चाहूँगा कि मानव जीवन से जुड़े प्रत्येक बात के सात्रः धर्म का सम्बन्ध है ..धर्म मात्र पूजा पाठ / सत्संग / प्रवचन से जुड़ा नहीं है ,,,,इसका सम्बन्ध अर्जुन् जैसे परम प्रवृतिशील का योगेश्वर कृष्ण जैसे आप्त /जीवंतशास्त्र के दिशा निर्देश मे कर्तित्व के साथ है ...धर्म केवल एक मानव का विषय भी नहीं है यह समस्त मानव का विषय है ...इसका सम्बन्ध धारणा के साथ है ..यतो धर्मस्ततो जय:

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