Tuesday, June 5, 2012

ईशावास्योपनिषद :

(अभ्यास एवँ पूजन की दृष्टि से हम लोग यह यज्ञ कार्य शुरू कर रहे हैं ... पवित्र मन्त्रों को इस पोस्ट पर जान बुझ कर नहीं लिखा है ..सभी अभ्यासु भाइयों/ बहनों, एवँ मंच के सभी विद्वत समाज से अनुरोध है कि अगर उनके पास वेद माता का आशीर्वाद यह उपनिषद अगर नहीं है तो कृपया उसे क्रय करें और प्रत्येक सप्ताह मे दो दिन चलने वाले इस यज्ञ कार्य मे अपना योग्यदान अवश्य करें ...मै यहाँ सभी विद्वत समाज को यह भी अवगत कराना उचित समझता हूँ कि मै मात्र उपनिषदों का एक प्रेमी व कारण स्वरुप अभ्याशु मात्र हूँ ..अतः पुस्तकों से भाष्य को नक़ल करने आदि मे कोई त्रुटि हो गयी हो तो अवश्य क्षमा करें .......और कृपया अपने ज्ञान को इस पोस्ट के माध्यम से अवश्य बनते ..आप सभी के आशीर्वाद का प्रार्थी ...) 


ईशावास्योपनिषद : 


वह परब्रम्ह परमात्मा सर्व प्रकार से पूर्ण है .और यह विश्व ( कार्य ब्रम्ह ) भी पूर्ण ही है . क्योकि पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है . तथा ( प्रलय काल मे ) पूर्ण ( कार्य ब्रम्ह ) का पूर्णत्व लेकर ( अपने मे लीन करके पूर्ण परब्रम्ह ही बच रहता है . त्रिविध तापों की शांति हो . 


अखिल विश्व मे जड़ चेतन स्वरुप जो विश्व है वह सर्व व्याप्त ईश्वर से परिपूर्ण है ( अर्थात संसार मे भगवतस्वरुप का दर्शन करना चाहिए ). उसे साथ रखते हुए इस विश्व को त्याग पूर्वक भोगते रहना चाहिए . लालच ना करना चाहिए . (१)


इस जगत मे कर्मों को करते हुए सौ वर्षों तक जीवित रहने की कामना करनी चाहिए . इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है , जिससे तुझे अशुभ कर्म का लेप ना हो .(२) 


वे असुर सम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित हैं . जो कोई भी आत्मा का हनन करने वाले लोग हैं, वे मरने के अनंतर उन्हें प्राप्त करते हैं . (३ ) 


वह आत्म तत्व अपने स्वरुप से विचलित ना होने वाला , एक तथा मन से भी तीव्र गति वाला है . इसे इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकी ; क्योकि यह पहले ( आगे ) गया हुआ ( विद्यमान ) है . वह स्थिर होकर भी अन्य सब गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है . उसके रहते हुए ही ( अर्थात उसकी सत्ता मे हि ) वायु समस्त प्राणियों के प्रवृत्ति रूप कर्मों का विभाग करता है .( ४ ) 


वह आत्म तत्व चलता है और नहीं भी चलता है .वह दूर है ( अज्ञानियों को अप्राप्य होने के कारण ) और समीप भी है ( ज्ञानियों के लिए ) , वह सब के अंतर्गत है ( सूक्ष्म रूप होने के कारण ) और वही सबके बाहर भी है ( आक्ष रूप होने के कारण) (अर्थात वही सर्वत्र है) . ( ५ )


जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा मे देखता है और समस्त भूतों मे भी आत्मा को हि देखता है , वह इस ( सार्वात्म्य दर्शन ) के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता . ( ६ )


जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सर्व भूत आत्मा ही हो गए , उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ? ( शोक व मोह तो कामना और कर्म के बीज को ना जानने वालों को ही हुआ करते हैं ..जो आकाश के सामान आत्मा का विशुद्ध एकत्व देखने वाले हैं उनको नहीं होते ) (७ )( क्रमशः )

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