Tuesday, June 26, 2012
Monday, June 25, 2012
आध्यात्म और विज्ञान
प्रसिद्ध
वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है एवं
विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आज
भी खोज जारी है परंतु इनके उपरोक्त कथन पर आज तक कोई विचार नहीं किया गया
प्रस्तुत लेख में इनके धर्म एवं विज्ञान से संबंधित कथन को प्रमाणित करने
का प्रयास किया गया है।
आध्यात्म विज्ञान एक मूल विज्ञान है जबकि आधुनिक विज्ञान इसका
बिगड़ा हुआ स्वरूप है, आध्यात्म विज्ञान पूर्ण ज्ञान है जबकि आधुनिक
विज्ञान अधूरा ज्ञान है क्योंकि जब तक किसी कार्य या ज्ञान के माध्यम से हम
ईश्वर तक न पहुंचें तब तक ज्ञान अधूरा रहता है तथा अधूरा ज्ञान हमेशा घातक
होता है, जिसका परिणाम आज सभी देख रहे हैं। विज्ञान परमाणु को द्रव्य का
सूक्ष्मतम कण मानकर अध्यन करता है जबकि आध्यात्म परमाणु को द्रव्य का अंतिम
स्थूल कण मानकर अध्यन करता है अर्थात विज्ञान अनंत की ओर चलता है एवं
आध्यात्म अंत की ओर चलता है। विज्ञान द्रव्य को अविनाशी मानता है जबकि
आध्यात्म के अनुसार द्रव्य का विनाश हो जाता है । ब्रह्माडीय द्रव्य दो
रूपों में होता है एक जड़ दूसरा चेतन, विज्ञान जड़ तत्व का अध्यन करता है
एवं आध्यात्म चेतन तत्व का अध्यन करता है, चेतन तत्व की प्रतिक्रिया से ही
जड़ तत्व की उतपत्ति होती है। विज्ञान का कथन है कि हमारे पूर्वज बानर थे
अब हम ज्ञानवान बनकर उन्नति कर रहे हैं जबकि आध्यात्म का कथन है कि हमारे
पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ऋषि मुनि थे अब हम अज्ञानी बनकर विनाश की ओर बढ़ रहे
हैं। वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह कुछ भी हो
हमेशा विनाश अर्थात मृत्यु की ओर ही बढ़ता है यह ब्रह्म सत्य है, अतः
आध्यात्म का कथन ही सही प्रतीत होता है। हम अनन्त की ओर चलकर किसी लक्ष्य
तक नहीं पहुंच सकते जबकि अंत की ओर चलकर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है।
विज्ञान का कथन है कि मनुष्य एक ज्ञानवान प्राणी है परंतु आघ्यात्म का कथन
है कि ज्ञान मनुष्य में नहीं द्रव्य (आत्मा) में होता है क्योंकि द्रव्य ने
मनुष्य को पैदा किया है न कि मनुष्य ने द्रव्य को, मनुष्य सिर्फ इस ज्ञान
को व्यक्त करने का एक माघ्यम मात्र है। विज्ञान का न तो कोई अंतिम लक्ष्य
निर्धारित है न ही कोई फल (परिणाम) निर्धारित है, जबकि आध्यात्म का अंतिम
लक्ष्य भी निर्धारित है एवं फल भी निर्धारित है। आध्यात्म का लक्ष्य है
ईश्वर तक पहुंचना एवं फल मोक्ष है (वैज्ञानिक आधार पर मोक्ष किसे कहते है
हम इसी लेख में आगे समझेंगे)। लक्ष्य विहीन विज्ञान का परिणाम यही हो सकता
है कि थककर या किसी गढ्ढे में गिरकर विनाश। इसी तथ्य को समझकर हमारे
ब्रह्मज्ञानी पूर्वजों ने अंत के रास्ते को चुना क्योंकि अंत के रास्ते पर
चलकर मनुष्य ईश्वर तक पहुंचकर मोक्ष प्राप्त कर जन्म मृत्यु के बंधन से
छुटकारा प्राप्त कर लेगा, एवं अनंत के रास्ते पर चलकर विभिन्न योनियों में
जन्म लेता हुआ दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का ही प्रयास करता रहेगा। आधुनिक
शिक्षा भौतिकवाद एवं पूंजीवाद को बढ़ावा देकर मनुष्य का नैतिक पतन कर उसे
विनाश की ओर ले जा रही है, जबकि आध्यात्मिक शिक्षा कैसी भी परिस्थितियों
में मनुष्य को सुखमय जीवन जीने की कला सिखाती है। सुख और दुख मनुष्य की
मानसिक भावना है यह कोई भौतिक वस्तु नहीं है, यदि दुख को हटा दिया जाय तो
सुख ही शेष बचता है आध्यात्म हमें अपने जीवन से दुख को अलग करने की कला
सिखाता है जिससे मनुष्य स्वस्थ, सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर सकता है,
जबकि आधुनिक विज्ञान हमें दुखों को बढ़ाने की कला सिखाता है जिससे मनुष्य
तनाव एवं कभी न ठीक होने वाली क्रानिक बीमारियों का शिकार बनता है।
आध्यात्म में धन की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है जबकि भौतिकवाद में धन प्रथम
आवश्याकता है। आध्यात्म एवं विज्ञान में यही अंतर है।
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -1
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार
दुनिया में धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के
विपरीत दो अलग अलग विषय माना जाता है जबकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। संसार दो प्रकार का होता है पहला दृश्य संसार जो हमें आखों से दिखाई
देता है दूसरा अदृश्य संसार जो हमें आखों से दिखाई नहीं देता, हम दृश्य
संसार को भौतिक संसार एवं अदृश्य संसार को मानसिक संसार भी कहते है। भौतिक
संसार को सभी व्यक्ति एक जैसा देखते हैं एवं एक समान व्यवहार करते हैं
परंतु अदृश्य या मानसिक संसार को प्रत्येक व्यक्ति अलग तरह से देखता एवं
अलग व्यवहार करता है। विज्ञान दृश्य संसार का विषय है एवं धर्म अदृश्य
संसार का विषय है, चूंकि अदृश्य संसार की प्रतिक्रिया से ही दृश्य संसार
प्रगट होता है इसलिए धर्म या आध्यात्म को ही मूल विज्ञान कहा गया है।
प्रस्तुत लेख आध्यात्म और विज्ञान को जोड़ने का एक प्रयास है इसमें न तो
विज्ञान के किसी सिद्धांत का उलंघन होता है न ही धर्म के किसी सिद्धांत का
उलंघन होता है। विज्ञान को समझे बिना यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि वह
धर्म या आध्यात्म का ज्ञाता है तो वह झूठ बोलता है, जब तक कोई व्यक्ति
ब्रहृांड एवं मनुष्य की संपूर्ण वैज्ञानिक संरचना एवं क्रिया प्रणाली को
नहीं समझता तब तक वह धर्म या आध्यात्म को नहीं समझ सकता। यह लेख भौतिक
विज्ञान जीव विज्ञान सापेक्षवाद एवं मनोविज्ञान पर आधारित है। भौतिक एवं
जीव विज्ञान दृश्य संसार का विषय है सापेक्षवाद एवं मनोविज्ञान अदृश्य
संसार के विषय हैं इसमें चारों के आपसी संबंध एवं क्रियाप्रणाली को दर्शाया
गया है। यह लेख वेदमाता गायत्री द्वारा दी गई शिक्षा, स्वयं के अनुभव एवं
आत्मज्ञान पर आधारित है। यहां धर्म एवं आध्यात्म का वर्णन आधुनिक भाषा एवं
वैज्ञानिक आधार पर किया गया है धार्मिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थों में एक ही
चीज के अलग अलग नाम होने के कारण लोग इसे समझ नहीं पाते। इस लेख के प्रथम
भाग में धर्म को समझने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डाला गया
है एवं दूसरे भाग में योग के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने का सही तरीका
बताया गया है। लोग आज धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल चुके हैं धर्म अब
अंधविश्वास, व्यवसाय और राजनीति तक ही सीमित रह गया है। यह लेख धर्म के
वास्तविक स्वरूप को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास है। इस लेख में देवी
देवताओं, भूत प्रेत, तंत्र मंत्र एवं अन्य धर्मिक रहस्यों की वैज्ञानिक
व्याख्या की गई है। यदि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहते हैं तब
इस लेख के प्रथम भाग में वर्णित वैज्ञानिक तथ्यों को समझना आवश्यक है इसको
समझे बिना कोई भी व्यक्ति धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकता इसमें
ईश्वर, आत्मा, मन, प्राण आदि सहित मानव शरीर की सूक्ष्म संरचना एवं
क्रियाप्रणाली को दर्शाया गया है इसे पढ़कर हम स्वयं के वारे में सब कुछ
जान सकते हैं। आध्यात्म एवं धर्म को समझने के लिए इसे जानना अति आवश्यक है।
इस लेख में वैज्ञानिक या वेद पुराणों की भाषा का उपयोग नही किया गया है।
इसमें सरल एवं सबकी समझ में आने योग्य आधुनिक बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग
किया गया है। इस लेख में किसी भी चीज का पारिभाषिक एवं सैद्धांतिक तौर पर
ही उल्लेख किया गया है विस्तार से जानने के लिए यहां दिए गए सिद्धांतों को
आधार मानकर प्रमाणिक धार्मिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थों का अध्यन कर सकते हैं।
इस लेख में निम्न विषयों की व्याख्या की गई है।
1. आध्यात्म और विज्ञान
2. धर्म
3. ईश्वर
4. आत्मा
5. मन
6. ज्ञान
7. प्राण
8. सापेक्षवाद
9. देवी देवता एवं भूत प्रेत
10. ब्रह्मांड
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -2
धर्म
प्रकृति (ईश्वर) के नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है
इसका एक ही कानून है कि इस धरती पर पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति सभी
कर्म करने के लिए स्वतंत्र है वशर्ते उसके कर्म से किसी भी जड़ या चेतन को
कोई आपत्ति न हो, न ही किसी का कोई नुकसान हो, धर्म का यही मूल नियम है,
यदि कोई व्यक्ति इसका उलंघन करता है तो उसके लिए ईश्वर द्वारा इस प्रकार की
प्रक्रिया बनाई गई है कि मनुष्य प्रकृति के नियम के विपरीत किए गए कर्म के
फल स्वरूप ही दुख बीमारी एवं दंड भोगता रहता है। परंतु अज्ञान के कारण वह
इसे समझ नहीं पाता कि वह अपने स्वयं के कर्मों का फल भोग रहा है, वह इसका
दोष हमेशा ईश्वर, भाग्य या अन्य किसी को देता है, जबकि ईश्वर न तो कभी किसी
को दुख देता है न ही सुख देता है। मनुष्य जो भी सुख दुख प्राप्त करता है
इसके लिए उसके कर्म ही जबावदार होते हैं। प्रतिक्रिया हेतु कर्म का
उद्देश्य प्रमुख होता है क्योंकि एक ही कर्म के अच्छे या बुरे कई उद्देश्य
हो सकते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति या जीवों का विनाश करता है तब उसका भी
विनाश निश्चित है। इस घरती पर पैदा होने वाले मनुष्य सहित प्रत्येक जीव को
ईश्वर द्वारा रहने खाने एवं जीने का हक समान रूप से दिया गया है, परंतु आज
स्वार्थी लोगों द्वारा मनुष्य सहित अन्य जीवों के इस हक को छीना जा रहा है
जिससे आगे चलकर इसके भयानक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव अपने
जीवनकाल में दो ही कार्य करता है एक तो अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने
के लिए संघर्ष करना एवं दूसरा दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का प्रयास करना।
विज्ञान को तो अभी यह भी मालूम नहीं है कि पृथ्वी पर मनुष्य क्यों पैदा
होता है एवं उसके जीवन का लक्ष्य क्या है तथा उसके जीवन की इकाई क्या है।
घार्मिक ग्रथों में मनुष्य जीवन के चार लक्ष्य बतलाए गए हैं।
1. घर्म 2. अर्थ 3. कर्म 4. मोक्ष।
उपरोक्त चार लक्ष्य प्राप्ति के लिए चार वेद लिखे गए
हैं। गायत्री मंत्र के चार चरण इन चार वेदों का सार है। कलयुग में अब
मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य अर्थ अर्थात धन कमाना ( वह भी अनैतिक तरीके
से ) ही शेष बचा है, कर्म भी दिशाहीन हो गया है धर्म का स्वरूप बदल चुका है
और मोक्ष तो समाप्त ही हो चुका है।
संसार में कई धर्म प्रचलित हैं परंतु इन धर्मों में कुछ
समानताऐं भी हैं, जैसे सभी धर्म ईश्वर को निराकार मानते हैं इसी कारण किसी
भी धर्म में ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति नहीं है। ( निराकार का अर्थ है
जिसका कोई आकार न हो जो त्रिविमीय आकाश में कोई जगह न घेरता हो अर्थात
जिसका आयतन शून्य हो)। सभी धर्म एक मत से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार
करते हैं एवं इसे जीवन की इकाई मानते हैं। सभी धर्मों में ईश्वर तक पहुंचने
का माध्यम ध्यान होता है, चूंकि शरीर को ध्यान के योग्य बनाने के कई तरीके
होते हैं अतः अपने अपने धर्म संस्थापकों द्वारा बतलाए गए तरीकों के आधार
पर धर्म यहां से अलग अलग हो जाते है तथा एक ही धर्म में धर्म गुरुओं के
आधार पर कई संप्रदाय बन जाते हैं, परंतु सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य होता
है ईश्वर तक पहुंचना। धार्मिक ग्रथों में ईश्वर को निराकार निर्विकार
निर्लिप्त सर्वव्यापी एवं सर्व शक्तिमान कहा गया है। वर्तमान में धर्म को
समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं, अब धर्म अंधविश्वास व्यवसाय एवं राजनीति
तक सीमित रह गया है। वैज्ञानिक क्रियाओं को हम भौतिक साधनों द्वारा
प्रमाणित कर सकते हैं, देख सकते हैं एवं दूसरों को भी दिखा सकते हैं।
आध्यात्मिक क्रियाओं को हम स्वयं तो प्रमाणित कर सकते हैं परंतु इन्हें हम
दूसरों को नहीं दिखा सकते क्योंकि घर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है भौतिक
रूप से इसका कोई महत्व नहीं है न ही इस क्षेत्र में किसी की नकल की जा सकती
है। आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए हमें सबसे पहिले मन पर
नियंत्रण करना सीखना होता है इसके बिना इस क्षेत्र में कुछ भी नहीं कर सकते
क्योंकि धर्म एक मानसिक प्रक्रिया है इसका भौतिक रूप में कोई महत्व नहीं
है भौतिक रूप में सिर्फ यज्ञ का महत्व होता है जो पर्यावरण शुद्धि के लिए
है। आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य वास्तिविक ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त
करना है। आधुनिक धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को भौतिक सुख प्राप्ति का साधन
बताकर इसके वास्तविक स्वरूप को बदलकर इसे व्यवसाय, राजनीति एवं
साम्प्रदायिकता फैलाने का साधन बना लिया है जिससे मनुष्य अंध विश्वास और
लालच में फंसकर अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है, जब कि धर्म का भौतिक
सुख सुविधा, अंधविश्वास, चमत्कार आदि से कोई संबंध नहीं है। धर्म स्वस्थ
सुखी एवं दीर्धायु जीवन जीने के लिए एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। यह धरती
मनुष्य की कर्म भूमि है यहां बिना कर्म किए किसी को कुछ नहीं मिलता भगवान
और भाग्य के भरोसे कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखना मूर्खों का काम है।
तुलसीदास ने कहा है कि:-
सकल पदारथ है जग मांहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।।
गीता में भी श्रीकृष्ण ने कर्म का ही उपदेश दिया है।
किसी भी देवी देवता का कृपा पात्र बनने के लिए संसार में आसक्ति को छोड़कर
उन देवी देवता तक पहुंचना जरूरी है। धर्म एवं आध्यात्म विज्ञान को समझने के
लिए सबसे पहिले ईश्वर को समझना आवश्यक है।
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -3
ईश्वर
ईश्वर शब्द से सभी परिचित हैं परंतु बहुत कम लोग ही
ईश्वर को समझ पाते हैं। ईश्वर के बारे में आम आदमी की घारणा है कि पूजा
अर्चना करने एवं मंदिर आदि में जाकर प्रसाद एवं चढ़ावा चढ़ाने से ईश्वर उन
पर प्रसन्न हो जाएगा एवं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देगा या उन्हें कोई
जादू की छड़ी पकड़ा देगा जिससे वे मालामाल हो जाऐंगे, या उनके सब पाप नष्ट
हो जाएंगे, परंतु यह बिलकुल ही मूर्खतापूर्ण एवं अंध विश्वास से ग्रस्त
धारणा है। ईश्वर न तो कभी किसी से कुछ लेता है न ही कभी किसी को कुछ देता
है, लेना देना पूर्णतः मनुष्य के कर्म के उपर निर्भर करता है। कर्म से ही
मनुष्य जीवन में सुख दुख का अनुभव करता है, कर्म से ही उसके भविष्य का
निर्माण होता है, कर्म से ही उसके वंशानुगत जीन्स का निर्माण होता है एवं
कर्म से ही उसके जन्मों का निर्धारण होता है, इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य
स्वयं अपने भविष्य का निर्माता होता है। कहा जाता है कि अमुक स्थान या अमुक
व्यक्ति के पास जाने से मनुष्य की मनोकामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं, यह सिर्फ
मनुष्य की श्रद्धा एवं विश्वास पर निर्भर करता है। जब कोई रोगी किसी
डाक्टर के पास इलाज कराने जाता है और यदि डाक्टर को उसका रोग समझ में नहीं
आता तब डाक्टर उसे ऐसी दवा दे देता है जिसमें कोई औषधीय गुण नहीं होता
परंतु इस दवा को खाकर भी मरीज ठीक हो जाता है, अतः शक्ति मनुष्य के श्रद्धा
एवं विश्वास में होती है न कि किसी मूर्ति मंदिर या व्यक्ति विशेष में,
मंदिरों को आध्यात्म की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है जहां हम श्रृद्धा एवं
विश्वास सीखते हैं।
वैज्ञानिक आधार पर ई्श्वर को समझने के लिए हम एक ठोस धातु का
टुकड़ा लेते हैं इसे हम जिस स्थान पर रख देते हैं यह उसी स्थान पर रखा रहता
है जब तक कि इसे उस स्थान से किसी के द्वारा हटाया न जाए या इसमें जब तक
कोई वल न लगाया जाए, अर्थात यह स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अब हम इस टुकड़े
को इतना गर्म करें कि यह द्रव रूप में बदल जाए अब यह द्रव रूप धरातल के
अनुरूप अपना आकार बदलने में सक्षम हो जाता है अर्थात इसे अब जिस पात्र में
रखा जाए यह उसी के अनुरूप अपना आकर बना लेता है। अब हम इस द्रव रूप को इतना
गर्म करें कि यह वाष्प रूप में बदल जाए यह वाष्प रूप सारे वायुमंडल में
फैलने में सक्षम हो जाता है एवं वायु की गति प्राप्त कर लेता है। इस वाष्प
रूप को और गर्म करने पर इसके परमाणु प्रकाशित हो जाते हैं अब यह प्रकाश,
उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है। ( यहां यह ध्यान रखने योग्य
है कि जलने से परमाणु कभी नष्ट नहीं होता न ही इसकी संरचना बदलती है सिर्फ
यह प्रकाश, उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है )। अब यह सारे
ब्रह्मांड में फैलने में सक्षम हो जाता है एवं प्रकाश की गति अर्थात तीन
लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति प्राप्त कर लेता है तथा कोई भी क्रिया
करने में सक्षम हो जाता है। यह उर्जारूप अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर तरंग
रूप में बदल जाता है और अंत में यह तरंग रूप निराकार रूप में बदलता रहता है
इस निराकार रूप को हम ईश्वर कहते हैं। धार्मिक ग्रथों में इसे ईश्वर का
तत्व रूप कहा गया है, गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट
कहा है कि जो व्यक्ति मेरे तत्व रूप को जान लेता है वही मुझ तक पहुंच पाता
है।
द्रव्य के
तरंग रूप से निराकार रूप में बदलने की क्रिया सिर्फ ब्लेक होल (कृष्ण बिवर)
बन गए सूर्य के केन्द्र में ही होती है अन्य किसी जगह यह क्रिया संभव नहीं
है। ब्लेक होल असीमित घनत्व वाली तरंगों का समूह है यहां सारा सौरमंडल का
द्रव्य तरंग रूप में रहता है यही कारण है कि इनको देखा नहीं जा सकता यहां
गुरुत्वाकर्षण, घनत्व एवं दवाव इतना अधिक होता है कि यह तरंग रूप द्रव्य
शून्य में विलीन होता जाता है या इस प्रकार कह सकते हैं कि इस तरंग रूप
द्रव्य को यहां इतना पीस दिया जाता है कि कुछ भी शेष नहीं बचता। ब्लेक होल
का जीवन काल अनंत होता है क्योंकि ब्रहृाड से जो भी प्रकाश या तरंगें इन तक
पहुंचतीं है उनको ये अपने में समाहित करते जाते हैं यहां से प्रकाश या
तरंगें परावर्तित होकर वापस नहीं लौट सकते अतः इनमें तरंगों को निराकार रूप
में बदलने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। कालान्तर में यह ब्लेक होल
पूरी तरह निराकार (ईश्वर) रूप में बदलकर समाप्त हो जाते हैं अर्थात एक सौर
मंडल का अंत हो जाता है या सौर मंडल में स्थित पूरे द्रव्य का विनाश हो
जाता है। आध्यात्म की भाषा में इसे द्रव्य का ब्रह्म में लीन हो जाना कहते
हैं,। इसी आधार पर पूरा ब्रह्मांड ईश्वर में लीन हो जाता है। धार्मिक
ग्रथों में ब्लेक होल को महाकाल ( अर्थात समय का अंत करने वाला ) कहा गया
है। पृथ्वी एवं सौरमंडल का अंत करने वाली शक्ति को शिव कहते है इसके बाद
शिव महाकाल का रूप धारण कर ब्रहृांड का अंत करते हैं ब्रहृांड का अंत होने
पर समय का भी अंत हो जाता है। मनुष्य भी आघ्यात्म के माघ्यम से ज्ञान
प्राप्त कर अपने शरीर में स्थित आत्मा को गुण रहित बनाकर ईश्वर रूप में बदल
सकता है। उपरोक्त आधार पर आध्यात्म या किसी भी धर्म एवं विज्ञान के अनुसार
ईश्वर एक ही है अलग नहीं अतः आध्यात्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं
अलग नहीं। चूंकि विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया है कि ब्लेक होल में
क्या क्रिया होती है।
ब्रह्मांड में जो कुछ भी है इस सब को हम द्रव्य कहते हैं, इस द्रव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है।
1. जड़ 2. चेतन ।
चेतन स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं जबकि जड़
स्वतः क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती
है। जड़ का सबसे छोटा कण परमाणु होता है, एवं चेतन द्रव्य का सबसे छोटा
रूप आत्मा होती हैं। जड़ परमाणु के भीतर ही चेतन रूप स्थित होता है एवं अलग
से स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है।
इसमें जड़ द्रव्य के तीन रूप होते हैं।
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप।
चेतन द्रव्य के दो रूप होते हैं।
1. उर्जा 2. तरंग,
इस तरह दोनों को मिलाकर द्रव्य के पांच रूप होते हैं।
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप 4. उर्जा 5. तरंग।
विज्ञान भी द्रव्य के इन पांच रूपों को प्रमाणित कर चुका है। धार्मिक ग्रथों में इन्हें पंच तत्व क्रमशः
1.पृथ्वी 2.जल, 3.वायु, 4.अग्नि एवं 5.आकाश कहते है।
पृथ्वी का मतलब ठोस, जल का द्रव, वायु का वायु या गैस
रूप, अग्नि का उर्जा एवं आकाश का मतलब कंपन या तरंग होता है। यहां यह
स्पष्ट करना चाहूंगा कि उर्जा सिर्फ अग्नि या अधिक तापमान को ही नहीं कहते
है शक्ति एवं प्रकाश भी उर्जा का रूप है इनका तापमान ऋणात्मक भी हो सकता
है। चूंकि ठोस एवं द्रव शब्द विदेशी भाषा से आए हैं संस्कृत भाषा में
इन्हें पृथ्वी एवं जल कहा जाता है। ब्रहृांड में जहां ठोस रूप मौजूद है
वहां सभी पांच रूप मौजूद होंगे, जहां ठोस नहीं है वहां शेष चार रूप होंगे,
जहां ठोस एवं द्रव नहीं हैं वहां शेष तीन रूप होंगे, जहां ठोस द्रव एवं
वायु नहीं हैं वहां शेष दो रूप होंगे, जहां ठोस द्रव वायु एवं उर्जा रूप
नहीं हैं वहां सिर्फ एक रूप ही होगा और जहां ये पांचों रूप नहीं हैं वहां
सिर्फ ईश्वर होगा। गृह एवं उपगृहों पर द्रव्य पांच या कुछ गृहों पर ठोस को
छोड़कर चार रूपों में पाया जाता है, सूर्य एवं तारों में द्रव्य उर्जा एवं
तरंग रूप में पाया जाता है, एवं ब्लेकहोल में द्रव्य सिर्फ तरंग रूप में
रहता है। ईश्वर सहित द्रव्य का प्रत्येक रूप स्वतंत्र अवश्था में भी रह
सकता है। हम एक समय में द्रव्य के एक रूप को ही देख सकते हैं इसके शेष चार
रूप इसमें छिपे होते हैं एवं अनुकूल वातावरण मिलने पर प्रगट हो जाते हैं।
जब द्रव्य ठोस रूप में होता है तब हम इसके द्रव, वायु, उर्जा एवं तरंग रूप
को नहीं देख सकते जब अन्य रूप में होता है तब शेष चार रूप नहीं देख सकते।
द्रव्य चाहे किसी भी रूप में रहे एक समय में इसके अंदर सूक्ष्म रूप से
पांचों रूप रहते हैं तथा प्रत्येक रूप में उस तत्व के गुण मौजूद रहते हैं,
जैसे सोना उपरोक्त पांच रूपों में से किसी भी रूप में रहे प्रत्येक रूप में
सोने के गुण मौजूद रहेंगे इसी आधार पर वैज्ञानिक प्रकाश के वर्ण विन्यास
से यह पता कर लेते हैं कि प्रकाश किस तत्व से निकल रहा है इसी कारण आगे आने
वाली पीड़ी में वंशानुगत गुण मौजूद रहते हैं। निराकार अर्थात ईश्वर रूप
में बदलने के बाद द्रव्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ईश्वर किसी भी तत्व
के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न ही किसी क्रिया में भाग लेता है।
द्रव्य जितने सूक्ष्म रूप में बदलता जाता है उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं
क्रियाशील होता जाता है द्रव्य का तरंग रूप सबसे अधिक शक्तिशाली एवं
क्रियाशील होता है होम्योपैथिक दवाएं इसी सिद्धांत पर काम करतीं है इनमें
द्रव्य के तरंग रूप का प्रयोग किया जाता है। तरंग रूप ही सभी भौतिक,
रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक क्रियाओं का माध्यम होता है एवं इसका प्रभाव
स्थाई होता है। विद्युत तरंगों से सभी परिचित हैं ये हमें दिखाई नहीं
देतीं परंतु तार को छूने से पता चल जाता है कि इनमें कितनी शक्ति है, जब तक
द्रव्य में तरंग उत्पन्न न हो तब तक किसी भी प्रकार की क्रिया संभव नहीं
है।
आज विज्ञान ने
कुछ स्थूल तरंगों जैसे ध्वनि तरंग, विद्युत चुंबकीय तरंग, प्रकाश एवं
विद्युत तरंगों पर नियंत्रण प्राप्त कर दुनिया का नक्शा ही बदल दिया है
इन्हीं के कारण आज मनुष्य रेडियो टेलीविजन इंटरनेट टेलीफोन फोटोग्राफी
विद्युत जैसी सैकड़ों सुविधाओं का उपयोग कर बड़े से बड़े कार्य कर लेता
है। आध्यात्म में मन एवं आत्मा को सबसे सूक्ष्म तरंग कहा गया है इन पर
नियंत्रण प्राप्त कर ब्रहृांड की सभी शक्तियों को प्राप्त किया जा सकता है
हमारे पूर्वज मन पर नियंत्रण प्राप्त कर इनका प्रयोग करना जानते थे,
धार्मिक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं। मन पर नियंत्रण प्राप्त
कर उपरोक्त सभी कार्य मात्र तरंग विज्ञान की शक्ति से किए जा सकते हैं
जिन्हें करने के लिए विज्ञान को कीमती यंत्रों की आवश्यकता होती है।
धार्मिक ग्रंथों में आकाश मार्ग अर्थात तरंगों के माध्यम से यात्रा करने के
भी उदाहरण मिलते हैं, विज्ञान भी आने वाले समय में यह तकनीक विकसित कर
लेगा। नैनो तकनीक के आने बाद तरंग विज्ञान और विकसित हो जाएगा।
उपरोक्त आधार पर ईश्वर को सर्व शक्तिमान माना गया है,
क्योंकि यह तरंग से भी सूक्ष्म अर्थात निराकार रूप है। धार्मिक ग्रथों के
अनुसार जो मा़त्र इच्छा शक्ति से उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में सक्षम है
उसे ईश्वर कहते है। अंग्रेजी में ईश्वर को गॉड कहते हैं यहां भी ‘जी‘ का
मतलब जनरेशन अर्थात उत्पत्ति ‘ओ‘ का मतलब आपरेशन अर्थात पालन एवं ‘डी‘ का
मतलब डिस्ट्राय अर्थात अंत, इस प्रकार जो उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में
सक्षम है उसे गॉड कहते हैं अतः दोनों भाषाओं में ईश्वर की परिभाषा एक ही
है। ईश्वर सर्वव्यापी है क्योंकि यह द्रव्य के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में
भी आधार के रूप में उपस्थित रहता है अर्थात ब्रह्मांड में ऐसी कोई जगह नहीं
जहां ईश्वर न हो या हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर ही ब्रह्मांड
है एवं ब्रह्मांड ही ईश्वर है। इस धरती पर या आसमान में हम जो कुछ भी देखते
हैं वह ईश्वर ही हमें विभिन्न रूपों में दिखाई देता है या ब्रह्मांड में
जड़ एवं चेतन के रूप में हम जो कुछ भी देखते हैं इन सब का मूल रूप ईश्वर ही
है। यदि हम ईश्वर से श्रृद्धा रखते हैं तब सभी जड़ एवं चेतन को ईश्वर का
रूप मानते हुए श्रृद्धा पूर्वक व्यवहार करना होगा। ईश्वर निर्लिप्त एवं
निर्विकार है क्योंकि यह किसी भी तत्व के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न
ही किसी प्रकार की क्रिया में भाग लेता है। धार्मिक ग्रन्थों में ईश्वर
को द्रव्य का रूप न मानकर द्रव्य को ईश्वर का रूप माना गया है एवं ईश्वर को
स्वतंत्र एवं निरपेक्ष माना गया है क्योंकि सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है
एवं इसी में लीन हो जाता है। गुणों को धारण करने वाली प्रत्येक चीज साकार
एवं नश्वर होती है, चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो सिर्फ ईश्वर ही
निराकार अमर एवं अजन्मा है। ईश्वर ने संसार की रचना कुछ इस प्रकार की है कि
यहां क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है एवं प्रतिक्रिया से
परिणाम प्राप्त होते रहते हैं इसमें ईश्वर को कुछ भी नहीं करना होता वह तो
हर जगह द्रष्टा एवं आधार के रूप में उपस्थित रहता है। चूंकि हम सूक्ष्म
क्रियाओं को देख नहीं सकते परंतु हम अपने जीवन चक्र से इसे समझ सकते हैं।
प्राणी (सजीव) जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं
पहला प्राणी जगत दूसरा वनस्पिति जगत तीसरा कीट जगत। इसमें वनस्पिति जगत जो
त्याग करता है ( फल फूल औषधि आक्सीजन आदि के रूप में) उससे प्राणी जगत एवं
कीट जगत का पोषण होता है, प्राणी जगत जो त्याग करता है (मल मूत्र कार्वन
डाईआक्साइड आदि) इससे कीट जगत एवं वनस्पिति जगत का पोषण होता है एवं कीट
जगत खाद आदि के रूप में जो त्याग करता है उससे वनस्पिति जगत एवं प्राणी जगत
का पोषण होता है। अतः तीनों आपस में एक दूसरे का अस्तित्व बनाए रखते हैं
एवं कोई भी चीज कचरा या प्रदूषण के रूप में शेष नहीं रहती। इसी प्रकार जल
एवं वायु चक्र भी अपना काम करते रहते है। आज विज्ञान के माध्यम से जिन खनिज
तत्वों का उपयोग किया जाता है उनसे निकले अवशेषों को बिना मूल रूप में
बदले पृथ्वी जल एवं वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है जो कि हमारी पृथ्वी जल
एवं वायु को प्रदूषित करते रहते हैं जो कि सभी के अस्तित्व के लिए खतरा है,
खनिज तत्वों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल प्रदूषित होता है
जबकि वनस्पतियों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल शुद्ध होता है इसी
कारण धार्मिक गंरथों में यज्ञ को आवश्यक एवं महत्वपूर्ण माना गया है। यज्ञ
से निकली सूक्ष्म तरंगें वायुमंडल की प्रक्रिया में सुधार कर आवश्यक
तत्वों की पूर्ति करतीं है यह तरंगें भी होम्योपैथी के सिद्धांत पर ही काम
करती हैं। आज अज्ञान के कारण मनुष्य प्राणियों वनस्पतिओं को अपनी स्वार्थ
पूर्ति के लिए नष्ट करता रहता है परंतु वह यह नही समझ पाता है कि इनको नष्ट
करके वह अपने अस्तित्व को भी विनाश की ओर ले जा रहा है।
हम ईश्वर को गणित की संखया शून्य से भी समझ सकते हैं,
गणित में शून्य एक ऐसी संखया है जिसके बिना गणित की कल्पना करना संभव नहीं
इसमें अकेले शून्य का कोई महत्व नहीं होता परंतु यह किसी संखया के साथ
कितनी भी बड़ी संखया का निर्माण कर सकता है। शून्य में चाहे कितने भी शून्य
का जोड़ धटाना गुणा भाग कुछ भी किया जाय परिणाम हमेशा शून्य ही आता है इसी
प्रकार निराकार (ईश्वर) में चाहे कितने भी निराकार मिल जाएं यह हमेशा
निराकार ही रहेगा। इसी आघार पर सारा ब्रह्मांड निराकार अर्थात शून्य में
विलीन हो जाता है एवं सिर्फ एक ईश्वर शेष बच जाता है जिसमें निराकार रूप
में पूरा ब्रह्मांड स्थित होता है। यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है, जिस
प्रकार वायु एक होते हुए सारे वायुमंडल में व्याप्त है इसी प्रकार ईश्वर
सारे ब्रह्द्मांड में व्याप्त है। ईश्वर के निराकार अर्थात मूल रूप को कभी
देखा नहीं जा सकता न ही किसी ने देखा है न ही कोई किसी भी साधन द्वारा कभी
देख सकेगा क्योंकि वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है। इसके अलावा किसी भी
रूप में ईश्वर के दरशन किए जा सकते हैं। इस आधार पर यह प्रश्न उठ सकता है
कि जब वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है तब ईश्वर को मानने की क्या
आवश्यकता, इसकी व्याखया भी धर्मिक ग्रथों में उपलव्ध है। इस संसार का लगभग
चालीस प्रतिशत भाग ही हम देख पाते हैं बाकी साठ प्रतिशत भाग हम नहीं देख
सकते। हम द्रव्य के ठोस द्रव एवं उर्जा रूप को देख सकते है (उर्जा रूप का
भी एक भाग प्रकाश या अग्नि को ही देख पाते हैं) परंतु वायु एवं तरंग रूप को
हम नहीं देख सकते इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इसी प्रकार ईश्वर के
मूल रूप को हमारी भौतिक आखों से नहीं देखा जा सकता इसे सिर्फ ज्ञान के
द्वारा ही जाना जा सकता है। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम श्लोक में ईश्वर का
वर्णन इस प्रकार किया गया है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाशिष्यते।।
अर्थ:-
ईश्वर सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है, यह जगत भी उस ईश्वर से पूर्ण
ही है क्योंकि यह पूर्ण (जगत) उस पूर्ण पुरुसोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है,
इस प्रकार ईश्वर की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण है,
उस (ईश्वर) पूर्ण में से इस (जगत) पूर्ण को निकाल देने पर भी वह (ईश्वर)
पूर्ण ही बच जाता है।
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -4
आत्मा
आत्मा द्रव्य का प्रथम साकार कण है यह ईश्वर के चारों
ओर प्रभामंडल के रूप में स्थित होता है हम इसे द्रव्य का सबसे छोटा रूप कह
सकते है यह द्रव्य का तरंग रूप होता है। इसका आकार पखिर्तनीय होता है यह
द्रव्य के सभी गुणों को घारण कर सकती है एवं छोड़ भी सकती है जब यह गुणों
को छोड़ देती है तब निराकार अथवा ईश्वर रूप में बदल जाती है एवं जब गुणों
को घारण करती है तब संसार की रचना करती है गुणों को घारण करने एवं छोड़ने
के कारण ही इसका आकार बदलता रहता है एक बार निराकार रूप में बदल जाने के
बाद इसका पुनर्जन्म नहीं होता, आध्यात्म की भाषा में इसे मोक्ष कहते हैं,
परंतु यह काम आत्मा स्वयं नहीं कर सकती इसके लिए यह मन के उपर निर्भर है।
आत्मा सिर्फ क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करती है एवं प्रतिक्रिया से
परिणाम प्राप्त होता है। ब्रह्मांड में जड़ या चेतन जो कुछ भी है उन सभी का
मूल आधार आत्मा है यह परमाणु के भीतर स्थित छोटे से छोटे कण में भी आधार
के रूप मे स्थित रहती है। यदि हम परमाणु को एक पानी से भरा घड़ा मान लें तब
आत्मा का आकार इसकी एक बूंद के बराबर होगा परमाणु का आकार इतना छोटा होता
है कि एक सुई की नोंक पर हजारों परमाणुओं को रखा जा सकता है परमाणु किसी
तत्व का सबसे छोटा कण है जबकि आत्मा द्रव्य का सबसे सूक्ष्म रूप है इससे
सूक्ष्म ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है इसके बाद सिर्फ ईश्वर है जो कि
निराकार है। आत्मा तब तक अमर रहती है जब तक कि हमारा सौर मंडल है सौरमंडल
का अंत होने पर इसका भी अंत हो जाता है। आत्मा जब तक जीवित रहती है तब तक
यह हमेशा सौर मंडल में इधर से उधर भटकती ही रहती है अर्थात एक तत्व से
दूसरे तत्व में एक प्राणी से दूसरे प्राणी में भटकती ही रहती है एवं हर जगह
इसे क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करनी ही होती है इस प्रकार अनंत काल तक
इसे कभी आराम नहीं मिलता है इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ईश्वर ने आत्मा
को मोक्ष की सुविधा प्रदान की है जो कि यह मनुष्य के माध्यम से ही प्राप्त
कर सकती है। आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है इसमें कोई अपवाद नहीं
होते, जैसे हम किसी पत्थर पर चोट मारें तो प्रतिक्रिया स्वरूप पत्थर टूटेगा
इसके अलावा और कोई क्रिया नहीं हो सकती यह द्रव्य के सभी भौतिक,
रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के लिए जबावदार होती है
क्रिया हमेशा बाहरी आवरण से शुरु होती है तभी आत्मा प्रतिक्रिया करती है
अर्थात जब कही से पत्थर को चोट मारी जायगी तभी यह टूटेगा अपने आप नहीं,
अर्थात आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करती, इसी प्रकार मनुष्य द्वारा किए गए
कर्म रहन सहन खानपान एवं उसके विचारों की शरीर में प्रतिक्रिया के आधार पर
ही वह अपने जीवन में सुख दुख भोगता एवं अपने भविष्य का निर्माण करता है।
धार्मिक ग्रंथों में द्रव्य के गुणों को देवी देवता एवं
राक्षस कहा गया है सद्गुणों को देवी देवता एवं दुर्गुणों को राक्षस कहा गया
है। इनकी संख्या 33 करोड़ बताई गई है यह सभी गुण आत्मा में स्थित होते हैं
ये आत्मा में बीज रूप में स्थित होते हैं जिस प्रकार एक छोटे से बीज में
विशालकाय वृक्ष स्थित होता है ठीक इसी तरह आत्मा में गुण स्थित होते हैं
एवं परिस्थिति के अनुसार उसी प्रकार के गुण क्रियाशील हो जाते हैं। यदि हम
किसी वृक्ष के बीज को जमीन में दवाकर उसे खाद पानी आदि देते हैं तो वह उसी
प्रकार के वृक्ष के रूप में बढ़ने लगता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य अपनी
ज्ञानेद्रियों के माध्यम से जो देखता सुनता एवं समझता है वह वैसा ही बनता
जाता है मनुष्य जिस प्रकार के कार्य करता है उसी प्रकार के गुणों की वृद्धि
उसमें होती जाती है जिस प्रकार कि खाद पानी देने से एक वृक्ष वृद्धि करता
रहता है अर्थात किसी भी कार्य में दक्षता प्राप्त करने के लिए निरंतर
अभ्यास जरूरी होता है। यदि हम वृक्ष के बीज को जला दें तब फिर चाहे इसको
कितना ही खाद पानी दिया जाय यह बीज वृक्ष उतपन्ऩ नहीं कर सकता इसी प्रकार
आत्मा में स्थित गुणों को यदि नष्ट कर दिया जाए तो कितना भी साधन उपलब्ध
होने पर मनुष्य में उसके उपभोग की इच्छा जागृत नहीं होगी। धर्म या आध्यात्म
का यही मूल उद्देश्य है, इन गुणों को कैसे नष्ट किया जाय इसे दूसरे भाग
में समझेंगे। जिस प्रकार एक बीज से वृक्ष उतपन्न किया जा सकता है उसी
प्रकार आत्मा से जड़ या चेतन किसी को भी उतपन्न किया जा सकता है क्योंकि यह
सबका मूल बीज है परंतु इसके लिए सही वैज्ञानिक प्रकिया एवं आवश्यक
परिस्थिति पैदा करने का ज्ञान होना आवश्यक है विज्ञान अभी आत्मा को देख भी
नहीं सका है नेनो तकनीक के विकसित होने के बाद शायद विज्ञान आत्मा तक पहुंच
जाएगा अभी विज्ञान द्वारा क्लोन पद्यति से जीवों को उतपन्न करने का प्रयास
किया जा रहा है जिसमें विकृतियां होना संभव है। रामायण महाभारत एवं गीता
में अलग अलग विधियों द्वारा मनुष्य को पैदा करने के उदाहरण मिलते हैं राम
एवं सीता इसके प्रमुख उदाहरण हैं राम को कृत्रिम विधि द्वारा माता के
गर्भाशय से पैदा किया गया था जबकि सीता को माता के गर्भाशय के बाहर ही पैदा
किया गया था।
आत्मा में तीन
गुण प्रमुख हैं पहला उत्पत्ति से संबंधित अर्थात ब्रहृा दूसरा पालन से
संबंधित अर्थात विष्णु तीसरा अंत से संबंधित अर्थात शिव यह तीनों गुण आत्मा
में हमेशा उपस्थित रहते हैं चाहे वह आत्मा कहीं भी हो, क्योंकि ब्रहृांड
में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु इन तीन चरणों से गुजरती है, इनमें
प्रत्येक की करोड़ों शाखाऐं होती है। ईश्वर ने सर्वप्रथम आत्मा को ब्रह्मा
अर्थात उतपत्ति के गुण सहित उत्पन्न किया फिर ब्रह्मा द्वारा अपनी ऋणात्मक
शक्ति जिसे धार्मिक ग्रंथों में सावित्री कहा गया है को उत्पन्न किया
इन्हें ब्रह्मा की पुत्री एवं पत्नि के रूप में जाना जाता है, पुत्री इसलिए
कहा जाता है क्योंकि ब्रह्मा ने स्वयं इसे उतपन्न किया पत्नि इसलिए कहा
जाता है क्योंकि इनके संयोग से ही विष्णु शिव एवं इनकी ऋणात्मक शक्तियां
लक्ष्मी एवं पार्वती सहित करोड़ों देवी देवताओं (गुणों) को उत्पन्न कर
संसार की रचना की। आदिकाल में हमारे ऋषि मुनियों द्वारा द्रव्य के गुणों को
जो नाम दिए एवं शरीर में इनकी क्रियाप्रणाली एवं गुणों की व्याखया के आधार
पर जो चित्र बनाए वे प्रायः मनुष्य की आकृति से मिलते जुलते दिखते हैं
इससे यह समझा जाने लगा कि देवता मनुष्य की आकृति जैसे कोई अदृश्य प्राणी
हैं जो हमें दिखाई नहीं देते परंतु यह बिलकुल ही गलत धारणा है। हम इन देवी
देवताओं की जो आकृतियां देखते हैं ये हमारे शरीर में इनकी क्रिया प्रणाली
एवं गुणों की व्याखया के आधार पर बनाई गई हैं इस प्रकार की आकृति वाला कहीं
कोई होता नहीं है न ही इनके माता पिता होते हैं, महर्षि महेश योगी द्वारा
इन देवताओं की संपूर्ण वैज्ञानिकव्याख्या की गई है। श्री राम और श्रीकृष्ण
को भी हिन्दू धर्म में देवता के रूप में पूजा जाता है परंतु इनका जन्म
मनुष्य रूप में हुआ था अतः ये इतिहास पुरुष एवं धर्म संस्थापक हैं जबकि
ब्रहृा विष्णु एवं शिव सहित लाखों देवी देवता विशेष गुणों के नाम हैं। जैसा
कि पहिले लिखा जा चुका है कि देवता आत्मा में स्थित होते हैं एवं आत्मा
हमारे शरीर में स्थित है अतः सभी देवता एवं राक्षस भी हमारे शरीर में ही
स्थित हैं। मनुष्य में जैसे भी देवत्व के या राक्षसी गुण उभरे होते हैं वह
उसी प्रकार सज्जनता या दुष्टता का व्यवहार करता है। इसी कारण धार्मिक
ग्रंथों में देवी देवताओं की आराधना का विघान है, हम जिस देवता की आराधना
करते हैं उस देवता से संबंधित गुणों की वृद्धि हमारे शरीर में होने लगती है
परंतु हमें इसकी सही विधि ज्ञात होना आवश्यक है सिर्फ भौतिक रूप से पूजा
करने का कोई महत्व नहीं है क्योंकि यह मानसिक प्रक्रिया है। चूंकि प्रत्येक
उपासना के साथ पूजन की विधि जुड़ी होती है जिसका उद्देश्य साधना या उपासना
के लिए वातावरण को अनुकूल बनाने का होता है इसी प्रकार राक्षसी शक्तियों
को प्राप्त करने के लिए राक्षसों की भी साधना एवं उपासना की जाती है। किसी
की भी उपासना के लिए सही विधि एवं उस देवी देवता के गुणों की व्याख्या एवं
क्रिया प्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा बिना जानकारी के कोई भी
उपासना करने से धर्मान्धता या विक्षिप्तावश्था उतपन्न होती है, इसके लिए
योग्य गुरु का होना आवश्यक है।
आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहा गया है
अर्थात आत्मा सभी जड़ एवं चेतन के जीवन की इकाई है, आध्यात्म की भाषा में
जीवन उसे कहते हैं जिसका उतपत्ति एवं अंत होता है ब्रह्मांड में ईश्वर को
छोड़कर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसका उतपत्ति या अंत न होता हो अतः
ब्रह्मांड में हर जगह जीवन मौजूद है, क्योंकि जीवन की इकाई आत्मा है और वह
प्रत्येक छोटे से छोटे कण में भी मौजूद है। विज्ञान शायद चलते फिरते
प्राणियों को ही जीवन मानती है जो कि बिलकुल गलत है क्योंकि प्राणी भी
द्रव्य के इन छोटे छोटे कणों अर्थात जड़ परमाणुओं से बने हुए हैं मनुष्य को
यह हमेशा याद रखना चाहिए कि द्रव्य ने मनुष्य को पैदा किया है मनुष्य ने
द्रव्य को नहीं, ज्ञान द्रव्य अर्थात आत्मा में होता है मनुष्य में नहीं,
मनुष्य इस ज्ञान को व्यक्त करने का सिर्फ एक माध्यम मात्र है, आत्मा में
स्थित इस ज्ञान को प्राप्त करने का एक निश्चित तरीका होता है जिसका वर्णन
दूसरे भाग में करेंगे मनुष्य एवं सौर मंडल का अंत हो जाने पर भी कभी ज्ञान
का अंत नहीं होता क्योंकि ज्ञान की उतपत्ति ईश्वर से होती है।
आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहते हैं, एवं
प्राण के माध्यम से स्वतः क्रिया करने एवं वंश वृद्धि करने वालों को प्राणी
कहते हैं इसमें मनुष्य सहित सभी प्राणी जगत कीट जगत शामिल है वनस्पति जगत
भी प्राण के माध्यम से ही वंशवृद्धि एवं क्रिया करता है परंतु प्राणी जगत
एवं वनस्पति जगत की क्रिया प्रणाली में थोड़ा अन्तर होता है। जड़ वस्तुओं
में मन प्राण ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां नहीं होती जबकि प्राणियों
में ये चारों चीजें होतीं हैं प्राण द्रव्य का उर्जा रूप है इसकी क्रिया
प्रणाली के संबंध में आगे बताऐंगे। चेतन उसे कहते हैं जो स्वयं क्रिया करने
में सक्षम होते हैं तथा जड़ स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया
करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। द्रव्य ठोस रूप से उर्जा एवं तरंग
रूप में बदलने पर चेतन हो जाता है ये दोनों रूप कोई भी क्रिया करने में
सक्षम होते हैं।
मनुष्य सहित सभी प्राणियों का शरीर द्रव्य के पांच रूपों ठोस, द्रव,
वायु, उर्जा और तरंग से बना होता है जिन्हें धार्मिक ग्रथों में पंच तत्व
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश कहा गया है ये पांचों रूप प्राणियों में
अपने निम्नतम एवं उच्चतम स्तर के साथ क्रियाशील अवश्था में मौजूद होते हैं।
जड़ पदार्थ ठोस, द्रव या वायु रूप में से किसी एक रूप में ही होते हैं एवं
यह रूप एक ही स्तर का होता है एवं निष्क्रिय अवश्था में होता है या हम कह
सकते हैं कि इनमें क्रिया की गति बहुत धीमी होती है इनमें सैकड़ों वर्षों
बाद कुछ पखिर्तन दिखाई देता है प्रत्येक वस्तु को क्रिया करने हेतु उर्जा
की आवश्यकता होती है प्राणियों में स्थित उर्जा को हम प्राण कहते हैं।
हमारे शरीर में ईश्वर निराकार रूप है, आत्मा और मन तरंग रूप है, प्राण
उर्जा रूप है, आक्सीजन अन्य गैस आदि वायु रूप हैं, रक्त रस जल आदि द्रव रूप
हैं, मांस हड्डी आदि ठोस रूप हैं। इस प्रकार हमारा शरीर द्रव्य के पांच
रूपों से बना हुआ है और जब तक हमारे शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ये
पांचों रूप क्रियाशील बने रहते हैं।
किसी तत्व का परमाणु कई गुणों का समूह होता है यह गुण
परमाणु में स्थित हजारों आत्माओं से उत्सर्जित होते हैं इन गुणों को
निश्क्रिय एवं क्रियाशील कर एक तत्व के परमाणु को दूसरे तत्व के परमाणु में
बिना संलयन एवं विखंडन किए बदला जा सकता है हमारे पूर्वज इस क्रिया
प्रणाली को जानते थे। पृथ्वी पर विज्ञान ने अब तक लगभग 101 तत्वों की खोज
की है यह सभी तत्व हमारी पृथ्वी एवं वायुमंडल में पाए जाते हैं पृथ्वी के
गर्भ में दबे इन तत्वों को पृथ्वी वनस्पतियों के माध्यम से उपर भेजती रहती
है जो फल फूल, अन्न, जल, वायु एवं औषधियों के माध्यम से हमारे शरीर में
पहुंचते हैं। इन सभी तत्वों के परमाणुओं के मेल से हमारा शरीर बना हुआ है
अर्थात हमारे शरीर का एक एक कण इस घरती का अंश है एवं प्राण सूर्य का अंश
है, अतः धरती सबकी मूल माता एवं सूर्य सबके मूल पिता हैं। मनुष्य को हमेशा
याद रखना चाहिए कि धरती ही हमें भौतिक सुख सुविधा सहित जीवन जीने के लिए
भोजन, हवा, पानी आदि सभी आवश्यक चीजें उपलब्घ कराती है अतः धरती की रक्षा
करना मनुष्य का पहला कर्तव्य है। सभी तत्व हमारे शरीर में संतुलित अवश्था
में मौजूद होते हैं इन्हें हम हवा पानी व भोजन के माध्यम से प्राप्त करते
हैं। शरीर के भीतर ये तत्व पाचन के माध्यम से द्रव, वायु, उर्जा और तरंग
रूप में बदलकर हमारे स्वास्थ मन एवं बुद्धि पर प्रभाव डालते हैं इनकी कमी
या अधिकता का हमारे स्वास्थ पर तुरंत प्रभाव पड़ता है इनकी कमी या अधिकता
से हम बीमार होने लगते हैं बीमार होने पर औषधि के रूप में इन तत्वों को
लेकर इनकी कमी या अधिकता को दूर कर हम स्वस्थ हो जाते हैं। प्रत्येक तत्व
का शरीर के अलग अलग भाग पर प्रभाव होता है जैसे सोना बुद्धि पर असर करता है
इसकी कमी से मनुष्य निराशा या डिप्रेशन का शिकार हो जाता है भय एवं निराशा
के कारण यह बीमारी उत्पन्न होती है मनुष्य में सबसे अधिक मृत्यु का भय
होता है परंतु जब निराशा बढ़कर मृत्यु भय को गौड़ कर देती है तब मनुष्य
आत्महत्या कर लेता है। इस बीमारी का इलाज एलोपेथी आर्युवेद या होम्योपेथी
आदि किसी भी पद्यति से किया जाय बीमारी को दूर करने के लिए सोने से निर्मित
दवा का ही प्रयोग किया जाएगा। तीनों पद्यति में दवा एक ही होगी परंतु दवा
बनाने के तरीके एवं शरीर में इनके द्वारा क्रिया करने के तरीके अलग अलग
होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक तत्व हमारे शरीर के विभिन्न भागों पर प्रभाव
डालते हैं। शरीर की सामान्य क्रियाप्रणाली में बदलाव आ जाने को हम असाध्य
रोग कहते हैं इन्हें दवाओं से ठीक नहीं किया जा सकता, संसार में अत्याधिक
आसक्ति, तृष्णा अपनी परस्थिति से संतुष्ट न रहना, राग द्वेष, चिंता, भय आदि
असाध्य रोगों के मुखय कारण हैं विज्ञान खान पान एवं जीवन शैली को असाध्य
रोगों का प्रमुख कारण मानती है परंतु खान पान एवं जीवन शैली से कोई खास
फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है मनुष्य की विकृत मानसिकता और उसके विचारों
से, क्योंकि आधुनिक जीवन शैली एवं शिक्षा पद्यति मनुष्य की मानसिकता को
विकृत कर रही है। जो व्यक्ति संसार में जितना अधिक आसक्त होगा वह उतनी ही
जल्दी असाध्य रोगों का शिकार हो जाता है फिर भले ही उसका खानपान सात्विक हो
एवं व्यक्ति निर्व्यसन हो। जो व्यक्ति संसार मे आसक्त नहीं है उन्हें कोई
असाघ्य रोग नही होते फिर भले ही उनका खानपान एवं जीवन शैली सात्विक न हो।
(संसार में आसक्ति का मतलब होता है कि, प्रकृति, वनस्पिति, जीव जन्तु, एवं
मानवीय संबंधों की अपेक्षा स्वार्थ, भौतिक सुख सुविधा, धन एवं संपत्ति को
ज्यादा महत्व देना।)
हमारा शरीर विभिन्न माध्यमों से द्रव्य के पांचों रूप ग्रहण करता है
जैसे भोजन के माध्यम से ठोस रूप, पेय एवं जल के माध्यम से द्रव रूप, श्वांस
के माध्यम से वायु रूप, सूर्य के माध्यम से उर्जारूप एवं ज्ञान के माध्यम
से तरंग रूप को ग्रहण करता है। इसमे ज्ञान अर्थात तरंग रूप सबसे महत्वपूर्ण
होता है क्योंकि यही मनुष्य के जीवन पर स्थाई प्रभाव डालता है वह जैसा
ज्ञान प्राप्त करता है वैसा ही बनता जाता है। प्रथम चार रूपों को ग्रहण
करने के लिए हमारे शरीर में तीन ही अवयय होते हैं अर्थात मुंह, नाक एवं
त्वचा परंतु तरंग रूप अर्थात ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हमारे शरीर में
पांच अवयय होते हैं जिन्हें हम ज्ञानेद्रियां कहते हैं।
ईश्वर द्वारा 33 करोड़ गुणों को 84 लाख योनियों में
विभक्त किया गया है जिसके अनुसार एक गुणसूत्र से लेकर संपूर्ण अर्थात 33
करोड़ गुणसूत्र तक के प्राणी उत्पन्न किए हैं। ( पहली योनि में एक गुणसूत्र
होगा एवं दूसरी योनि में तीन गुण सूत्र होंगे अर्थात दूसरी योनि के दो
गुणसूत्र एवं पहली योनि का एक, इसी प्रकार तीसरी योनि में छः गुण सूत्र
होंगें अर्थात तीसरी योनि के स्वयं के तीन एवं पिछली योनियों के तीन ) इस
तरह 33 करोड़ गुणसूत्र को चौरासी लाख योनियों में बांटा गया है। मनुष्य
संपूर्ण गुणसूत्र वाला प्राणी है इसकी उतपत्ति सबसे अंत में हुई। प्रत्येक
प्राणी की निकटतम प्रजाति होती है मनुष्य की निकटतम प्रजाति बानर है परंतु
बानर कभी विकास करके मनुष्य नहीं बन सकता क्योंकि जो प्राणी जितने गुणसूत्र
वाला है वह उतने ही गुणसूत्र वाली संतान उतपन्न कर सकता है कम या अधिक गुण
सूत्र वाली नहीं हम यह अवश्य कह सकते हैं कि बानर के बाद पृथ्वी पर मनुष्य
की उतपत्ति हुई अर्थात मनुष्य की उतपत्ति सबसे अंत में हुई। मनुष्य के
अलावा ईश्वर के द्वारा उतपन्न किए गए सभी प्राणी ईश्वर द्वारा निश्चित कर्म
ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य सभी कर्म करने हेतु स्वतंत्र है। मनुष्य को
छोड़कर सभी प्राणियों की योनि कर्म प्रधान होती है जबकि मनुष्य की योनि
ज्ञान प्रधान होती है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए ईश्वर द्वारा
मनुष्य को छोड़कर सभी प्राणियों को निश्चित कर्म सौंपे गए हैं एवं ज्ञान
के माध्यम से इन सबकी रक्षा करना मनुष्य का कार्य है।
पृथ्वी के केन्द्र से सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को
चौदह भागों में बांटा गया है इन्हें लोक कहते हैं इनमें तीन लोक प्रमुख
हैं।
1. मृत्यु लोक 2. स्वर्ग लोक 3. नर्क।
पृथ्वी की सतह से जहां तक आक्सीजन है उतनी दूरी को
मृत्यु लोक कहते हैं इसके बाद सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को स्वर्ग लोक
कहते हैं इसके बीच में भी पितृ लोक जन लोक तप लोक मह लोक आदि होते हैं,
पृथ्वी की सतह से पृथ्वी के भीतर केन्द्र तक की दूरी को नर्क कहते हैं इनके
भी कई स्तर होते हैं।
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हमारे शरीर में आत्मा का आयतन शरीर की
तुलना में अंगूंठे के बरावर होता है (यदि शरीर में स्थित सभी आत्माओं को
एकत्रित किया जाय तब इनका आयतन शरीर की तुलना में अंगूठे के बरावर होगा)
आत्मा प्रत्येक सूक्ष्मतम कण के केन्द्र में आधार के रूप में उपस्थित रहती
है अर्थात यह हमारे पूरे शरीर में व्याप्त है, यह शरीर के बाहर भी कुछ
दूरी तक प्रभामंडल के रूप में रहती है । मृत्यु के समय प्राण के साथ कुछ
स्वतंत्र आत्माऐं शरीर से बाहर निकल जाती हैं ये आत्माऐं ही कहीं अन्य जन्म
लेती हैं। मृत शरीर में भी आत्मा होती है परंतु यह उसी प्रकार रहती है
जिस प्रकार कि एक जड़ पदार्थ में। समान गुण वाली आत्माऐं हमेशा समूह में
रहती हैं। मृत्यु के समय जो आत्माएं शरीर से बाहर जातीं हैं यह कहां जाऐंगी
इस बात पर निर्भर करता है कि उनका घनत्व (भार) कितना कम या अधिक है, कम
घनत्व वाली आत्माऐं हमेशा उपर (स्वर्ग) की ओर जातीं हैं एवं अधिक घनत्व
वाली आत्माऐं हमेशा नीचे (नर्क) की ओर जातीं है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार
कि हल्की गैस उपर की ओर जाती है एवं भारी गैस नीचे की ओर। मनुष्य के शरीर
में आत्मा का घनत्व कम या ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने
जीवन में संसार में कितना अधिक आसक्त रहा एवं कितनी इच्छाओं को लेकर उसकी
मृत्यु हुई। मृत्युलोक में भटकने वाली आत्माऐं ही दूसरा जन्म लेतीं हैं
इसके उपर या नीचे रहने वाली आत्माऐं तब तक दूसरा जन्म नहीं ले सकती जब तक
कि वह अपने घनत्व को कम या अधिक कर मृत्यु लोक में न आ जाएं। मृत्यु लोक
में रहने वाली आत्माएं किस योनि में जाएंगी यह मनुष्य जीवन में किए गए कर्म
के उपर निर्भर करता है।
यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि जब आत्मा प्रत्येक सूक्ष्म से
सूक्ष्म कण में स्थित है इस प्रकार मुत्यु लोक या अन्य किसी भी जगह इसकी
कोई कमी नहीं है फिर प्राणियों की आत्माएं ही क्यों जन्म लेतीं हैं कोई
अन्य आत्मा क्यों नहीं। चूंकि मुत्यु के समय प्राणियों के शरीर से बाहर
जाने वाली आत्माएं ही स्वतंत्र अवश्था में विचरण करतीं हैं, बाकी आत्माएं
द्रव्य के किसी न किसी तत्व के परमाणु या अन्य कणों में आधार के रूप में
स्थित होतीं हैं ये इनसे बाहर नहीं निकल सकतीं, इसी प्रकार मृत शरीर में जो
आत्माएं होती हैं वे भी किसी न किसी तत्व के कण का हिस्सा होतीं हैं एवं
उससे बाहर कहीं नहीं जा सकतीं। तत्व के कणों में स्थित आत्माएं हवा भोजन
एवं पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचती रहती हैं एवं पाचन के माध्यम
से द्रव्य के सूक्ष्म रूपों में विभक्त होकर स्वतंत्र अवश्था में भी पहुंच
जातीं है।
आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -5
मन
मन मनुष्य के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग
है इसे तीसरी आंख या छठी इंद्रिय भी कहते हैं, इसे अग्रेंजी में माइंड कहते
हैं। मन ही मनुष्य के शरीर का संपूर्ण बौद्धिक संचालन करता है अर्थात यह
शरीर को चलाने वाला ड्राइवर है। यह द्रव्य का तरंग रूप है और यह आत्मा के
साथ गुथा हुआ रहता है एवं सारे शरीर में व्याप्त है। इसे हम शरीर की संचार
प्रणाली कह सकते हैं यह आत्मा से संपर्क बनाए हुए ब्रह्मांड में कहीं भी
जाने में सक्षम है इसकी गति असीमित है यह प्रकाश की गति से कई गुना तेज गति
से चल सकता है यह एक सेकिंड में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में पहुंच सकता
है यदि हम विज्ञान की भाषा में कहें तो इसका तरंगदैर्ध्य अनंत है। यक्ष
प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठर ने मन को सबसे तेज चलने वाला बताया था। मन के
तीन भाग होते हैं।
1.चित्त, 2.बुद्धि 3.अहंकार।
चित्त का काम है जानना या ज्ञान प्राप्त करना, बुद्धि
का काम है निर्णय करना एवं अहंकार का काम है गलत निर्णय करना या निर्णय को
बदलने का प्रयास करना। मन का अस्तित्व तब तक रहता है जब तक प्राणी जीवित
है मृत्यु के बाद इसका कोई अस्तित्व नहीं रहता न ही यह कहीं स्वतंत्र
अवश्था में रह सकता है क्योंकि मन एक गतिशील संचार प्रणाली का नाम है जो कि
सिर्फ जीवित प्राणियों में ही रहती है। जब मन काम करना बंद कर देता है तब
मनुष्य कोमा की स्थिति में चला जाता है।
जब हमें कोई कार्य करना होता है तब सबसे पहिले हमारे मन
में उस कार्य को करने का विचार आता है जैसे हमें हाथ उपर उठाना है तब सबसे
पहिले हमारे मन में हाथ उठाने का विचार आएगा इसके बाद बुद्धि निर्णय करेगी
कि हाथ उठाना है या नहीं, हाथ उठाने का निर्णय कर लेने के बाद बुद्धि
प्राण अर्थात उर्जा रूप को उत्तेजित करेगी उर्जा नर्व के माध्यम से हाथ
उठाने के लिए आवश्यक उर्जा के साथ मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाएगी संदेश मिलते
ही मस्तिष्क हाथ उठाने के लिए आवश्यक रसायन तैयार करेगा जो हाथ की
मांसपेशियों में आवश्यक खिंचाव उतपन्न कर हाथ को ऊपर उठा देंगे परंतु इतनी
लम्बी प्रक्रिया सेकिंड के दसवें भाग से भी कम समय में हो जाती है। हमारे
द्वारा किए जाने वाले छोटे से छोटे शारीरिक या मानसिक कार्य करने के लिए
हमेशा यही प्रक्रिया दुहराई जाती है चाहे कार्य ज्ञानेद्रियों द्वारा किया
जाना हो या कर्मेद्रियों द्वारा किया जाना हो, कार्य हो जाने का संदेश भी
वापिस मन तक पहुंचता है तब मन फिर हाथ को सामान्य स्थिति में लाने के लिए
संदेश भेजता है। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि हमारे शरीर में
क्रियाएं कितनी तेजी से होतीं हैं। शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं
का हमें कोई पता ही नहीं लगता। अर्थात शरीर में होने वाली स्थाई सामान्य
क्रियाएं जो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए आवश्यक हैं, जो कि आजीवन बिना
रुके तेजी से शरीर में चलती रहतीं हैं, इनका हमें कोई पता नहीं चलता
क्योंकि इन क्रियाओं का संचालन प्राण करता है। इसके अलावा बौद्धिक क्रियाओं
का संचालन मन करता है, सामान्य क्रियाओं के अलावा बौद्धिक रूप से शरीर में
होने वाली छोटी से छोटी हलचल का संदेश मन तक पहुंचता है यदि मन के रास्ते
में कोई रुकावट पैदा हो जाय तो हमें शरीर में होने वाली किसी भी हलचल दर्द
आदि का पता न चलेगा, अर्थात हम बेहोशी की अवश्था में पहुंच जाऐंगे। इसके
रास्ते में रूकावट पैदा कर डाक्टर बड़े बड़े आपरेशन कर देते हैं। इस प्रकार
मन हमारे शरीर में ज्ञानेद्रियों कर्मेन्द्रियों सहित शरीर का बौद्धिक
संचालन करता है।
जब बुद्धि के पास निर्णय करने के लिए विकल्प ज्यादा
होते हैं तब अहंकार अपना काम करने लगता है इसे भी हम एक उदाहरण से समझते
हैं मानलो दो अलग अलग व्यक्तियों को घर से रेलवे स्टेशन जाना है जो कि दस
किलोमीटर दूर है एक व्यक्ति के पास रेलवे स्टेशन जाने के कई विकल्प मौजूद
हैं जैसे पैदल जाना साइकिल, बस आटो रिक्शा टेक्सी आदि परंतु दूसरे
व्यक्ति के पास पैदल जाने के अलावा कोई विकल्प नही है तब दूसरे व्यक्ति
में अहंकार कोई काम नहीं करेगा और वह तुरंत निर्णय लेकर पैदल चल देगा।
परंतु पहला व्यक्ति जिसके पास कई विकल्प हैं निर्णय लेने में कुछ देर
लगाएगा इसके अलावा वह तीन प्रकार से निर्णय ले सकता है पहला अपनी सामर्थ के
अनुसार दूसरा सामर्थ से कम तीसरा सामर्थ से अधिक यदि वह सामर्थ सें अधिक
खर्च कर जाने का निर्णय लेता है तब उसके मन में तनाव भी उतपन्न होगा। इस
प्रकार मनुष्य के मन में बुद्धि और अहंकार का टकराव हमेशा होता रहता है जो
कि तनाव एवं तनाव से उतपन्न होने वाली बीमारियों का कारण बनता है। बुद्धि
और अहंकार हमेशा एक दूसरे को दबाने की कोशिश करते रहते हैं। गरीब एवं
श्रमजीवी लोगों में अहंकार बहुत कम होता है परंतु बुद्धिजीवी एवं उच्चवर्ग
में अहंकार चरम पर होता है एवं तनाव से संबंधित बीमारियां भी इन्हीं दो
वर्गों में ज्यादा होतीं हैं इसी कारण आज दुनिया में जो भी निर्णय लिए जाते
हैं वह प्रकृति एवं जीवन के हित में नहीं होते क्योंकि निर्णय लेने वाले
व्यक्तियों में अहंकार चरम पर होता हैं। आध्यात्म के माध्यम से हम सीख सकते
हैं कि निर्णय लेने के कई विकल्प मौजूद होते हुए भी अहंकार को अपना काम
करने से कैसे रोका जा सकता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
हमारे मन में जो भी विचार उठते हैं उनका भाव हमेशा
हमारे चेहरे एवं आखों पर पर प्रगट होने लगता है हम किसी भी व्यक्ति के
चेहरे को देखकर तुरंत बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति प्रसन्न है, उदास है,
चिंतित है, तनाव ग्रस्त है या क्रोधित है आदि, अर्थात चेहरे को देखकर मन
में उतपन्न विचारों को पढ़ा जा सकता है। हम अभी उसी बदलाव को देख पाते हैं
जो चेहरे पर स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाता है सूक्ष्म रूप से प्रगट होने
वाले बदलाव को हम नहीं देख सकते। पुराने समय में हमारे ऋषि मुनि इस विधि को
जानते थे वे मनुष्य के अलावा चेहरे को देखकर जानवरों के विचारों को भी पढ़
लेते थे। जिस प्रकार विज्ञान ने आज कमप्यूटर की मशीनी भाषा को आम भाषा में
बदल लिया है इसी प्रकार मन में उतपन्न विचारों को आम भाषा में बदला जा
सकता है इससे जानवरों के विचारों को भी पढ़ा जा सकेगा, इसके लिए विज्ञान को
अभी समय लगेगा क्योंकि अभी विज्ञान मन तक नहीं पहुंचा है। विज्ञान ने अभी
झूठ पकड़ने वाली मशीन एवं नार्को टेस्ट आदि विधियां विकसित की हैं परंतु इन
विधियों द्वारा मस्तिष्क में उतपन्न रसायनों एवं तरंगों का विश्लेषण कर
परिणाम निकाले जाते हैं जो पूर्णतः विश्वासनीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति की मानसिक स्थिति अलग होती है यदि कोई व्यक्ति मन को नियंत्रित
करना जानता है या अनजाने ही उसका मन नियंत्रित हो जाता है तब इन विधियों
द्वारा गलत परिणाम मिल सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सन्यासी है तब उस पर किए
गए टेस्ट भी गलत परिणम दे सकते हैं। यहां सन्यासी का मतलब घर द्वार छोड़कर
चले जाने वाले आधुनिक सन्यासियों से नहीं है, जैसा कि उपर लिखा जा चुका है
कि हमारे मन में उतपन्न विचारों का भाव हमारे चेहरे पर प्रगट होता रहता
है, परंतु किसी व्यक्ति में यदि किसी भी अच्छी या बुरी परस्थिति में या सुख
दुख में चेहरे पर कोई भाव प्रगट नहीं होते अर्थात किसी भी परस्थिति का उस
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तब उसे सन्यासी कहा जाता है आध्यात्म के अनुसार
सन्यासी की यही परिभाषा है। ( कोमा को हिन्दी में सन्यास कहते हैं सन्यासी
की उतपत्ति इसी सन्यास शब्द से हुई है। ) एक गृहस्थ व्यक्ति सन्यासी हो
सकता है, हमारे जितने भी प्रसिद्ध सन्यासी ऋषि मुनि एवं धर्म संस्थापक हुए
हैं उनमें ज्यादातर गृहस्थ थे। हमारे जितने भी देवता हैं वे कोई भी बिना
पत्नि के नहीं हैं। ईश्वर को पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना बिलकुल
भी जरूरी नहीं है। भौतिक रूप से सन्यास धारण करने का कोई महत्व नहीं है
ईश्वर को पाने के लिए मानसिक रूप से सन्यासी बनना होता है क्योंकि धर्म
पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है। यह कार्य ग्रहस्थ जीवन में भी किया जा सकता
है, दूसरे भाग में इसे और स्पष्ट करेंगे। श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां
थीं फिर भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे।
द्रव्य के पांच रूपों ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और
आकाश ) का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में पांच ज्ञानेद्रियां
होती हैं। इन पांच रूपों के पांच अलग अलग गुण होते हैं।
1.पृथ्वी (ठोस) का गुण गंध,
2.जल (द्रव) का गुण रस (स्वाद),
3.वायु का गुण स्पर्श,
4.अग्नि का गुण रूप (दृश्य) एवं
5.आकाश का गुण शब्द (कम्पन)
उपरोक्त पांच रूपों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में निम्न पांच ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं।
1.गंध का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नासिका
2.स्वाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिव्हा
3.स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करने के लिए त्वचा
4.रूप का ज्ञान प्राप्त करने लिए आंख
5.शब्द का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कान
नासिका, जिव्हा, त्वचा, आंख और कान ये पांचों
ज्ञानेन्द्रियां हमारे शरीर के उपरी भाग के अलावा मन में भी सूक्ष्म रूप से
स्थित होती हैं इसलिए मन को छटी इंन्द्रिय या तीसरी आंख कहा जाता है। यदि
शरीर मे स्थित कोई ज्ञानेन्द्रिय खराब है तब भी मनुष्य उस ज्ञानेन्द्रिय से
संबंधित ज्ञान मानसिक रूप से प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ज्ञान प्राप्त
करना मन का काम है। सूरदास जन्म से अंधे थे परंतु उन्होंने सूरसागर नामक
विशाल ग्रंथ की रचना की इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण से संबंधित जिन दृश्यों का
चित्रण किया गया वैसा चित्रण आज का आंख वाला भी नहीं कर सकता। यदि मन की
कार्यप्रणाली में कोई बाधा आ जाय या मन काम करना बंद कर दे तब मनुष्य
मानसिक या शारीरिक कोई भी कार्य नहीं कर सकता एवं कोमा की स्थिति में चला
जाता है भले ही उसकी शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां पूर्ण रूप से स्वस्थ
एवं सही हों।
उपरोक्त विवरण के अनुसार हमारे शरीर में नाक जिव्हा
त्वचा आंख और कान पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है इनमें स्पर्श इंद्रिय सबसे
महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसकी सहायता से ही मन सहित बाकी चार
ज्ञानेन्द्रियां अपना काम करतीं हैं। यहां त्वचा का मतलब सिर्फ शरीर की
उपरी त्वचा से नहीं है हमारे शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण का उपरी भाग
स्पर्श इंद्रिय का काम करता है अर्थात यह हमारे संपूर्ण शरीर के अंदर एवं
बाहर व्याप्त है यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे शरीर के भीतरी भाग में होने
वाले किसी भी दर्द या हलचल का हमें कोई पता नहीं चलता।
जब गंध युक्त हवा के कण हमारी ध्राण इंन्द्रिय को
स्पर्श करते हैं तब हमें गंध का ज्ञान होता है, जब कोई खाने पीने की वस्तु
हमारी जिव्हा का स्पर्श करती है तब हमें स्वाद का ज्ञान होता है जब कोई
वस्तु हमारी त्वचा का स्पर्श करती है तब हमें स्पर्श का ज्ञान होता है, जब
कोई प्रकाश की किरण हमारी आंख के रेटीना को स्पर्श करती है तब हमें दृश्य
दिखाई देता है, और जब कोई ध्वनि तरंग हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है
तब हमें आवाज का ज्ञान होता है। इस प्रकार सभी इंन्द्रियों को काम करने के
लिए स्पर्श इंन्द्रिय ही सक्रिय करती है। हमारी स्पर्श इंन्द्रिय को शून्य
कर डाक्टर आपरेशन कर देते है, इसे शून्य कर देने से हमें कोई दर्द महसूस
नहीं होता। शरीर के किसी भाग को शून्य कर देने से उस भाग की स्पर्श
इंन्द्रिय काम करना बंद कर देती है, बेहोशी की हालत में मन अस्थाई तौर से
काम करना बंद कर देता है एवं कोमा की स्थिति में मन स्थाई तौर पर काम करना
बंद कर देता है।
जब हम सोते हैं तो हमारे शरीर की स्पर्श इंन्दिय को
छोड़कर शरीर में स्थित बाकी ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं सोते समय हम
बिस्तर के एवं आस पास के शोरगुल के स्पर्श को आत्मसात करके सो जाते हैं
सोते समय इससे तीव्र या अलग कोई स्पर्श हमारे शरीर में होता है तो हमारी
नींद खुल जाती है या कोई तेज आवाज जब हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है
तब हमारी नींद खुल जाती है हमारी नींद स्पर्श इन्द्रिय की सक्रियता के कारण
खुलती है न कि आवाज से, आवाज नींद खुलने के बाद सुनाई देती है। जब हमारे
शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं एवं हमारे मन में विचार आना
बंद हो जाते हैं और मन स्वतंत्र हो जाता है तब यह अपनी इच्छा से इधर उधर
घूमने चल देता है और हम स्वप्न देखने लगते हैं क्योंकि हमारे सोने के बाद
बहुत देर बाद तक मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियां जागती रहती हैं इसलिए मन जहां
जाता है वह दृश्य हम देखने लगते है। कभी कभी मन सोते समय भी स्वप्न में
देखे गए दृश्यों के आधार पर मस्तिष्क को आदेश देने लगता है तब सोते समय
हमारा शरीर भी भौतिक रूप से क्रिया करने लगता है नींद में चलना बोलना और
स्वप्नदोष आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। गहरी नींद में स्वप्न नहीं दिखते
क्योंकि गहरी नींद में मन एवं मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियां भी आराम करने
लगतीं है। गहरी नींद कितनी देर बाद आती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि
वह व्यक्ति कितना स्वस्थ चिंतित या निश्चिंत है स्वस्थ एवं निश्चिंत
व्यक्ति को गहरी नींद जल्दी आ जाती है। इसी प्रकार हमारे मन में स्थित
ज्ञानेन्द्रियां नींद खुलने के लगभग आधा घंटे पहिले जाग जातीं है इसी कारण
स्वप्न अक्सर नींद लगने के थोड़ी देर बाद तक या नींद खुलने के कुछ देर
पहिले आते हैं। प्रकृति में तीन गुण होते हैं।
1. सत 2. रज 3. तम।
सत का मतलब है ज्ञान, रज का मतलब क्रियाशीलता एवं तम
का मतलब अज्ञान होता है। ब्रह्म मुहूर्त एवं सत के प्रभाव में देखे गए
सपने अक्सर सत्य होते हैं, तम के प्रभाव में देखे गए स्वप्न असत्य होते
हैं, सोते समय रज का प्रभाव नहीं रहता। मनुष्य की तुलना मे अलग अलग
प्राणियों में कोई ज्ञानेन्द्रिय कम तो कोई अधिक सक्रिय होती हैं। प्रत्येक
व्यक्ति में भी ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता अलग अलग होती है इसलिए सभी की
बुद्धि या ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता एक जैसी नहीं होती। सभी
प्राणियों में पांचों ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं इनसे संवंधित ज्ञान को
ग्रहण करना एवं एक दूसरे में ज्ञान का आदान प्रदान करना सभी प्राणी जानते
हैं।
विज्ञान मस्तिष्क को शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख
अवयय मानती है परंतु बिना मन और प्राण के मस्तिष्क कुछ नहीं कर सकता प्राण
के बिना मस्तिष्क की मृत्यु हो जाती है, प्राण के बिना मस्तिष्क एक सेकिंड
भी जीवित नहीं रह सकता। यदि मस्तिष्क ही शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख
अवयय होता तो विज्ञान ने अब तक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली होती।
मस्तिष्क एक जड़ तत्व है इसे चेतन तत्व मन और प्राण मिलकर संचालित करते
हैं। हमारा मस्तिष्क सिर्फ एक रासायनिक प्रयोगशाला है और यह मन से प्राप्त
निर्देशों के अनुसार ही काम करता है। हमारे मस्तिष्क की कार्य प्रणाली लगभग
कमप्यूटर के सी पी यू के समान ही होती है। कमप्यूटर में पावर सिस्टम,
मदखोर्ड, सी पी यू, रेम, हार्ड डिस्क एवं एक्सटरनल डिवाइस (सी डी रोम) होते
है। यदि हम अपने शरीर की कमप्यूटर से तुलना करें तब हमारा शरीर मदर वोर्ड
है, प्राण पावर सिस्टम है, मस्तिष्क सी पी यू है, हमारी याददास्त रेम है
एवं ज्ञानेन्द्रियां एक्सटरनल डिवाइस हैं। हमारे मस्तिष्क में हार्ड डिस्क
जैसी कोई चीज नहीं होती जहां कि डाटा स्टोर कर के रखा जा सके चूंकि विज्ञान
का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में असीमित स्टोरेज क्षमता होती है यदि ऐसा
होता तो हम पढ़ी सुनी या देखी हुई चीज कभी नहीं भूलते क्योंकि फिर हम किसी
भी चीज को उसी तरह देख सुन लेते जैसे कि हार्डडिस्क में रखी हुई फाइल को
देख सुन लेते हैं। स्टोरेज क्षमता आत्मा में होती है न कि मस्तिष्क में,
चूंकि आत्मा मस्तिष्क सहित हमारे संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। हमारी आत्मा
में ब्रह्मांड की समस्त क्रिया प्रणाली एवं आदि काल से अब तक की समस्त
जानकारियां बीज रूप में स्थित होतीं हैं परंतु हमारे मन की गति बाहर अर्थात
संसार की ओर होने के कारण हम इन्हें नहीं जान पाते चूंकि इस जन्म में जो
भी जानकारी हमारी आत्मा तक पहुंचेगी वह हमें जीवन भर याद रहेगी क्योंकि वह
हमारे मन के माध्यम से आत्मा तक पहुंची है, आत्मा तक जानकारी तभी पहुंच
पाती है जब उसे पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण किया जाय जो चीज पूर्ण
एकाग्रता के साथ ग्रहण नहीं की जाती उसे हम कुछ समय बाद भूल जाते हैं।
पिछले जन्मों की जानकारी इसलिए याद नहीं रहती क्योंकि मृत्यु के साथ मन भी
नष्ट हो जाता है। इस जन्म के पहिले की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें
अपनी ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाना होता है अर्थात मन की गति को उल्टी
दिशा में आत्मा की ओर मोड़कर मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय करना
होता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
नैनो तकनीक विकसित होने के बाद हमारे शरीर में ऐसे
साप्टवेयर लगाए जा सकेंगे जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को हार्डडिस्क एवं
कमप्यूटर स्क्रीन जैसी सुविधा उपलब्ध करा देंगे, परंतु इससे मनुष्य की
बौदिवक एवं शारीरिक क्षमता धीरे धीरे समाप्त होती जाएगी आने वाले समय में
मनुष्य कमप्यूटर पर उसी प्रकार निर्भर हो जाएगा जिस प्रकार आज बिजली
टेलीफोन आदि पर निर्भर है अर्थात इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकेगा। आगे आने
वाले समय में मनुष्य हवा पानी भोजन सहित सभी कार्यो के लिए कमप्यूटर पर
निर्भर हो जायगा।
विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया कि हमारा मन
शरीर के बाहर ब्रह्मांड में कहीं भी जा सकता है जबकि धर्मिक ग्रथों में जगह
जगह यह उल्लेख किया गया है। टेलीपैथी एवं सम्मोहन इसका एक अच्छा उदाहरण है
इस विधि को विकसित कर लेने के बाद हम कहीं दूर बैठे व्यक्ति को कोई भी
आदेश देकर काम करा सकते हैं। यदि हमारा मन शरीर के बाहर नहीं जाता होता एवं
हमारे मस्तिष्क में ही पढ़ी सुनी देखी हुईं चीजें स्टोर हो जातीं होतीं तो
फिर स्वप्न में हम ऐसी कोई चीज नहीं देख सकते थे जो हमने पहिले कभी न देखी
हो, (या इस प्रकार कह सकते हैं कि हम स्वप्न ही नहीं देख पाते) न तो हम
ऐसी कोई कल्पना कर पाते जो हमने देखी सुनी या पढ़ी न हो, न ही वैज्ञानिक
कोई आविष्कार कर पाते, न ही मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर पाता। यह लेख भी
पढ़ी सुनी बातों के आधार पर नहीं लिखा जा रहा है। टाइटेनिक जहाज के डूबने
के पहिले उसके डूबने की अक्षरसः बिलकुल सही कहानी लिख दिया जाना इस बात को
प्रमाणित करता है कि मन शरीर से बाहर कहीं भीं किसी भी आने वाले या बीते
हुए समय में जा सकता है। इसे आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में गणित के माध्यम
से और स्पष्ट करेंगे।
हमारा मन इंटरनेट की तरह काम करता है जब हमें कोई
जानकारी चाहिए होती है तब हम इंटरनेट के माध्यम से हम उस बेवसाइट पर जाते
हैं एवं वहां उपलब्ध जानकारी हम अपने कमप्यूटर स्क्रीन पर देख लेते हैं
परंतु हमारे शरीर में कमप्यूटर स्क्रीन जैसी कोई व्यवश्था नहीं होती हम
याददास्त (मेमोरी) की सहायता से ही उसे जानने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे
मन में ताजमहल का विचार आता है तब हमारा मन वहां जाता है जहां हमने भौतिक
रूप से ताजमहल को या इसकी तस्वीर देखी थी फिर याददास्त के सहारे मन इसे
देखने की कोशिश करता है याददास्त के आधार पर हम इसे कितनी बारीकी से देख
सकते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भौतिक रूप से देखते समय हमने इसे
कितनी एकाग्रता से देखा था। यदि हमने कोई किताब पढ़ी है और बाद में
याददास्त के माध्यम से किताब को देखे बिना उसे दुहराने की कोशिश करते हैं
तब हम उसे बिलकुल वैसा ही नहीं दोहरा पाते। अलग अलग व्यक्तियों की याददास्त
की क्षमता अलग अलग होती है, यह क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि किताब
को पढ़ते समय वह उस पर कितना एकाग्र था, एवं उसकी ज्ञानेन्द्रियां कितनी
संवेदनशील हैं यदि वह सौ प्रतिशत एकाग्र था तब याददास्त के आधार पर वह उस
विषय को ज्यों का त्यों दुहरा देगा, यदि वह पढ़ते समय बिलकुल एकाग्र नहीं
था तब उसे कुछ भी याद नहीं रहेगा। सौ प्रतिशत एकाग्रता का मतलब होता है कि
हमारा पूरा ध्यान उसी कार्य पर हो जिसे हम कर रहे हैं जिस प्रकार कि अर्जुन
को निशाना लगाते वक्त चिड़िया की आंख के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा
था।
इसी प्रकार हमारे जीवन में
रोज समान्य तौर पर घटित होने वाली घटनाऐं हमें याद नहीं रहतीं परंतु कुछ
घटनाऐं ऐसी भी होतीं हैं जो जीवन भर कभी नहीं भूल पाते क्योंकि इन्हें हमने
पूरी एकाग्रता के साथ महसूस किया होता है, यह हमारी आत्मा तक पहुंचकर
उसमें स्थित हो जातीं हैं जब कोई भी कार्य पूर्ण एकाग्रता से किया जाता है
तभी उसका प्रभाव आत्मा तक पहुंचता है। एक बार आत्मा तक पहुंच जाने के बाद
कोई चीज भूल नहीं पाते। जब मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तब इसे कई
जन्मों तक नहीं भूलता। जब हम ऐसी कोई चीज को जानना चाहते हैं जो हमने
पहिले कभी देखी सुनी या पढ़ी न हो तब मन को इसे खोजने में समय लगता है इसके
लिए हमें लम्बे समय तक ध्यान मग्न या एकाग्र होकर गहराई में जाकर निरंतर
अभ्यास के द्वारा उसे खोजना होता है तब हम उसे जान पाते हैं इसी आधार पर
मनुष्य दुनियां में नई खोज या नया आविष्कार करता है। ज्ञान प्राप्त करने का
ध्यान या एकाग्रता से सीधा संबंध है, ध्यान के माध्यम से ही आत्मज्ञान एवं
ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया जाता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
पूरी एकाग्रता से एक लक्ष्य पर केंद्रित होने की कला
को ध्यान कहते हैं। ध्यान के माध्यम से हम किसी भी स्थान से किसी भी किताब
को उसी तरह पढ़ सकते हैं जिस प्रकार कि कमप्यूटर स्क्रीन पर वेव पेज को
खोलकर पढ़ लेते हैं भले ही वह किताब हमने पहिले कभी न पढ़ी हो, इसके लिए
हमें ध्यान को सिद्ध करके मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता को
विकसित करना होता है, परंतु आज इस भौतिकवाद के युग में मनुष्य के लिए यह
काम करना बहुत कठिन है, कभी अनायास ही संयोगवश हमारा मन ऐसा कर सकता है
जैसा कि उपर टाइटेनिक का उदाहरण दिया गया है परंतु ऐसा दुनिया में संयोगवश
कभी कभी ही होता है, ध्यान के माध्यम से मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियों की
क्षमता विकसित कर लेने के बाद मनुष्य अपनी इच्छानुसार कभी भी ऐसा कर सकता
है। यह भी टेली पैथी के समान प्रक्रिया है, संजय का धृतराष्ट्र को महाभारत
का आंखों देखा हाल सुनाना इसी प्रक्रिया पर आधारित है। ध्यान के माध्यम से
हमारा मन ब्रह्मांड में कहीं भी जाकर भूत एवं भविष्य की कोई भी जानकारी
प्राप्त कर सकता है, इसके लिए शरीर सहित कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है।
मन सिर्फ ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित ज्ञान (अर्थात गंध रस स्पर्श रूप एवं
शब्द) की ही जानकारी प्राप्त कर सकता है इसमें भौतिक रूप से कोई छेड़छाड़
या पखिर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि मन के साथ कर्मेन्द्रियां नहीं होती
ये हमारे शरीर में स्थित हैं जबकि ज्ञानेन्द्रियां शरीर के अलावा मन में भी
स्थित होतीं हैं।
हमारा मन एक बाहय् संचार प्रणाली है परंतु इसके अलावा
हमारे शरीर में एक आंतरिक संचार प्रणाली भी होती है अभी विज्ञान को इसकी
कोई जानकारी नहीं है धार्मिक ग्रथों में इसे नारद के नाम से जाना जाता है
एवं इन्हें ब्रह्मा का पुत्र कहा जाता है। हमारे शरीर में क्या क्रिया हो
रही है एवं शरीर में किस प्रकार के गुणों की कमी या वृद्धि हो रही है इसकी
जानकारी आत्मा में स्थित देवताओं (संबंधित गुणों) तक पहुंचाना इसका काम है
इसी जानकारी के आधार पर आत्मा प्रतिक्रिया करती है जिसका परिणाम मनुष्य को
कर्मफल के रूप में भुगतना होता है।
हमारे शरीर में मन और
आत्मा ही दो प्रमुख तत्व हैं जो हमारे शरीर सहित हमारे रहन सहन एवं जीवन का
भी संचालन करते हैं यही हमारे वंशानुगत गुण और हमारे जन्मों का भी
निर्धारण करते हैं। शरीर में मन क्रिया करता है एवं इसके विपरीत आत्मा
प्रतिक्रिया करती है जिससे मनुष्य कर्मफल के रूप में अपने जीवन में सुख दुख
प्राप्त करता है, हमारी शारीरिक संरचना स्वास्थ एवं बुद्धि भी इसी
प्रतिक्रिया पर आधारित है । मनुष्य के शरीर में आत्मा ही प्रमुख चेतन जीव
है इसलिए फल भी आत्मा को ही भुगतना होता है शरीर तो नष्ट हो जाता है और
इसके साथ ही मन भी नष्ट हो जाता है परंतु आत्मा को मनुष्य जीवन में मन
द्वारा किए गए कर्मों का फल लम्बे समय तक भुगतना होता है। प्रतिक्रिया
स्वयं आत्मा द्वारा की जाती है परंतु फिर भी यह उस परिणाम से स्वयं को नहीं
बचा सकती क्योंकि जैसा उपर लिखा जा चुका है कि आत्मा की प्रतिक्रिया
क्रिया के आधार पर बिलकुल निर्धारित होती है उसके विपरीत अपनी इच्छानुसार
यह कुछ नहीं कर सकती। जिस प्रकार कि हाइड्रोजन के दो परमाणु एवं आक्सीजन के
एक परमाणु की प्रतिक्रिया स्वरूप जल का एक अणु ही बनता है इसके सिवाय और
कुछ नहीं बन सकता इसी प्रकार आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है। शरीर
की मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य को पूर्व जन्म का कुछ
भी याद नहीं रहता परंतु फिर भी किसी किसी को पूर्व जन्म की याद आ जाती है
ऐसा कभी कभी समाचार पत्र के माध्यम से सुनने को मिल जाता है परंतु इसका
कारण दूसरा होता है, आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में इसे स्पष्ट करेंगे। जब
विज्ञान आत्मा तक पहुंचेगा तब यह सब विज्ञान को भी स्पष्ट हो जाएगा।
मनुष्य के अलावा अन्य
किसी भी प्राणी की आत्मा को कोई कर्मफल नहीं भुगतने होते हैं क्योंकि
मनुष्य के अलावा सभी प्रणियों की योनि कर्म प्रधान होती है और ये ईश्वर
द्वारा निश्चित कर्म ही कर सकते हैं इसलिए इनके कोई कर्मफल नहीं बनते जबकि
मनुष्य की योनि ज्ञान प्रधान है और वह कोई भी अच्छे बुरे कर्म कर सकता है,
ऊपर धर्म के प्रकरण में दी गई धर्म की परिभाषा के विपरीत किए गए कर्मों को
बुरे कर्म या पाप कहा जाता है। इसी के अनुसार आत्मा अन्य प्राणियों की योनि
में उस प्राणी के कर्म के विपरीत मनुष्य जीवन में किए गए एक कर्मफल को
नष्ट करती है। आध्यात्म के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर मनुष्य भी निष्काम
कर्म कर सकता है निष्काम कर्म के कोई कर्मफल नहीं बनते जैसे कि उपर लिखा जा
चुका है कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां होते हुए भी वे ब्रह्मचारी एवं
सन्यासी थे। निष्काम कर्म करने का तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
हमारे शरीर में मन एक बिना लगाम के घोड़े की तरह है और
आत्मा इसका सवार है। साधारण अवश्था में बिना लगाम के यह अपनी इच्छा अनुसार
आत्मा को इधर उधर घसीटता रहता है और आत्मा इसके द्वारा किए गए कर्मों का
फल भोगती रहती है। जब इसकी लगाम आत्मा के हाथ में आ जाती है तब यह सही
रास्ते पर चलने लगता है। परंतु आत्मा को अपनी लगाम थमाने का काम मन को
स्वयं ही करना होता है अर्थात स्वयं पर लगाम लगाकर आत्मा को थमाना होती है
यह काम कोई दूसरा नहीं कर सकता यह काम सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही सम्भव हो
पाता है। यह काम मनुष्य के लिए सबसे कठिन है क्योंकि वह दूसरे पर तो आसानी
से शासन कर सकता है परंतु स्वयं पर शासन करना उसके लिए बहुत कठिन काम है।
जब तक हम मन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर लेते तब तक धर्म या आध्यात्म के
क्षेत्र में कुछ नहीं कर सकते क्योंकि भौतिक रूप से धर्म या आध्यात्म का
कोई महत्व नहीं है। मन पर नियंत्रण प्राप्त करने के तरीके को ध्यान कहते
हैं, ध्यान से ही मन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मन के वारे में
कहा गया है कि
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
मन से ही तो पाइए, पराब्रह्म की प्रीत।।
गीता में श्रीकृष्ण के उपदेश का भाव यही है कि "मन एव
मनुष्यानां कारणं बंध मोक्षः"। अर्थात मन ही मनुष्य के शरीर में बंधन एवं
मोक्ष का कारण हैं। मन का ज्ञान से सीधा संबंध है अतः ज्ञान के वारे में
जान लेना उचित होगा।
Modern Physics Found Its Direction from Vedanta
Werner Heisenberg, a scientist with a
spiritual bent of mind, was elated and inspired after coming to
Shantiniketan. While living in Germany he had heard and read a great
deal about india. He had heard many stories and praises of Ved mantras, Vedic rishis and their Ashrams. Great poet of Germany, Goethe was his most favourite poet. Werner Heisenberg had read german translation of Abhigyan Shankuntalam of Kalidas by Goethe many a times. He knew many verses of this poem by heart. Rishi Knava
and the poetic description of the natural beauty of his Ashram had
always impressed him. That day in Shantiniktan he was experiencing,in
real life, all that he read about – the greenery of Shantiniketan, the
plants standing like youth adorned in green and the creepers embracing
these plants, the multicolored scenic beauty spread all around and the
air scattering enchanting fragrance. All this seemed as if Mother Nature
has spread one end of her anchal (fabric) in extreme fondness for the human life.
The very first sight of Shantiniiketan
had impressed Heisenberg very much. After wandering through and seeing
all over he felt as if the entire ashram is personification of one of
the beautiful poems of the great poet, Rabindranath Tagore, in which Vedc period, Vedic rishis and abodes of the rishis have
come alive all in one. The thoughts and emotions of this poet got
transformed into objects and not words and that the poet, who enfolded
the endless waves of love and affection for the humanity in his heart,
was the combined personification of the great poets Goethe, Kalidas and rishi Kanva.
For the young Heisenberg to see him, to converse with him, to sit in
his company was like the dream world coming true. For the last nine
years during which he had been doing atomic researchh along with his
fellow scientists; he had been writing letters to Rabindranath Tagore.
In 1920 Heisenberg along with Neils Bohr
of Denmark, Louis de Broglie of France, Erwin Schrodinger and Wolfgang
Pauli and Paul Dirac of England had started research on the nature of
atom. The myth that the smallest particle of the matter was atom or
nucleus had already been shattered. By now science had gone beyond
electron, proton or neutron. Even after the discovery of baryons,
mesons, tachyons and around 20 companions of these smaller particles, it
was still unclear whether there was any still smaller constituents of
the matter; if yes, what was that? All these scientists, ignoring the
narrow boundaries of their nations and the political and diplomatic
limits, were in constant touch with each other in finding the truth.
During the course of their research all
these scientists at sometime or the other felt that perhaps
fundamentally there was nothing like matter; as, while studying the
vibrations, they had found out that the reality of the atoms was the
waves of energy. After understanding this reality they abandoned the
particle theory and initiated the study of wave mechanics. At this
juncture Heisenberg was reminded of India and the philosophy of Indian rishis.
Though he had been engaged in this research for about 9 years and
during all this period he had been in correspondance with Rabindranath
Tagore, in the year 1929 he decided to visit India and that day he was
in Shantiniketan in the season of mild winter. After reaching
Shantiniketan he gave a detailed report of his investigation, along with
his associates to Babu Rabindranath Tagore and then in a dissappointed
tone mentioned – “ While discovering the smallest particle of
matter, now it seems that the notion of the matter is a myth; then what
is the reality?” In answer to this Rabindranath melodiously uttered a shloka (verse) from ‘Vivek Chudamani’ a composition of the great Acharya of Advaita, Adiguru Shankaracharya –
Yadidam sakalam vishwam nanarupam prateetmagyanat.
Tatsarvam brahmaiva pratyastasheshabhavanadosham.
“Out of the ignorance the entire
universe seems to be of varied forms and names, but in reality this is
Brahma, devoid of the defects of all emotions.”
With this the poet had taught him the essence, the fundamental secret of the philosophy of Vedanta – “ The
matter and all its forms are myth; to that extent the energy, which is
the subtle form of matter and its variations, is also false. The reality
is that all the differences whether of matter or of the various forms
of the nature, all of those are illusions. What is truth is
undifferentiated and that is Brahma – that is certain and everything
else is uncertain”.
This concept of Vedanta, experience of
Acharya Shankar, was well assimilated by Heisenberg. For many days, he
was engaged in discussion on the Advaita truth of Vedanta with
Rabindanath Tagore. During the course of these conversations
Rabindranath informed him about Swami Vivekananda, who had revived the
Vedic wisdom in this era. He himself accompanied Heisenberg to
Dakshineshwar and shown him the room where Vivekananda used to sit,
listening to the teachings of his Gurudev Ramakrishna Paramhansa. Then
he took him to the Belur Math, the headquarters of Ramakrishna Missions,
which was established as the Yugateerth of Advaita Vedanta.
There, while illucidating one saying of Vivekananda, he mentioned – “
All the differences whether these are social, biological or natural are
myth. Only truth is one, which is undifferentiated and that is Brahma”.
“What is Brahma”?, Enquired the young
Heisenberg with great curiosity. In reply to this, Rabindra Babbu,
standing at the banks of Ganga near Belur Math pointed to the
magnificent water of Ganga, ignoring all the imaginary differences of
the varied shapes and temeratures of water particles and said –
Nirastmayakritasarvabhedam nityam sukham nishkalamaprameyam.
Aroopvyaktamanakhymavyayam jyotih swayam kinchididam chakasti.
“He is free from all imaginary differences; He is eternal bliss,
devoid of art and is not a subject of proofs, etc. He is some
unexpressed, unnamed, and indestructible light which is glowing on its
own.”
After listening to the experiential verse
of Acharya Shankar in the melodious voice of the poet Rabindranath,
Heisenberg found a new direction for his research. After returning from
India, impressed by the Advaita philosophy; he postulated the Principle of Uncertainty. After many years, on 11th
April 1972 in the city of Munich in Germany, when the famous physicist
Fritjof Capra visited him, Heisenberg narrated many of his experiences
and said – the scientifc spirituality, pioneered by India is the need of
the present Era.
This inspiration has provided the basis
for the historical creation of the masterpiece “The Tao of Physics”, by
Fritjof Capra. In this connection Capra met Heisenberg again in the year
1974 and showed him the manuscript of his book. Heisenberg was
delighted to see that and said – “After all, the scientific study and
exposition of spirituality has begun !” After that in November 1975
Fritjof Capra sent him the first copy of the published book “The Tao of
Physics”. Heisenberg read that book for sure but could not write his
comments as he died before he could do it. A few days before his death
he mentioned to on eof his friends: “The scientists of the world should
study the spiritualists of India, especially Swami Vivekananda. He is
such a spiritual sage of India, whose thoughts can become the basis of
modern scientific research.”
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